Tuesday, 28 June 2011

शेर बन के जीता रहा

शेर बन के जीता रहा
 
पसीना यु ही बहता रहा
खिलती हुई धुप में
पेट यु ही मारता रहा
बेरोजगारी की खौफ में
 
यु जमाना हसता रहा
बाहों में सिमटी हसीना को
चाहत  यु ही छुपाता रहा
प्यार भरी निगाहों में
 
मंजिल के पीछे भटकता रहा
आसमान को छूने में
गहरे जख्म भी सहता रहा
बंधुभाव की दुनिया में
 
दुनिया की नजरो से यु छुपता रहा
छुआछूत की डर में
बार बार   हार के भी लढता रहा 
विचारोंकी जित में, बाबा तेरे प्यार में
 
स्वार्थ, लोभ, माया से भी दूर रहा
बुद्ध तत्व  के शरण में  
शेर बन के जीता रहा
बाबासाहब के महल में
---प्रा. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.

No comments:

Post a Comment