'जय भीम' मेरा पता !
घने घने बादलों ने, बूंदों से यह पूछा
के बारिश कैसी होती है !
बुद्धभूमी की और इशारा करते मैंने कहा,
वैसे जैसे इन्सान की पहचान होती है !
तपते हुए सूरज ने, रोशनी से यह पूछा
के गर्मी कैसी होती है !
दीक्षाभूमी की और आँख उठाते मैंने कहा,
वैसे जैसे मंदिर, मस्जित को पसीने छूटते है !
लहराते हुए समुन्दर ने, तालाब से यह पूछा
के गहराई कितनी होती है !
बाबासाहब के ग्रन्थ पर हाथ रखते मैंने कहा,
वैसे जैसे जिसे कोई नाप ना सके !
उभरते हुए बवंडर ने, तूफान से यह पूछा
के तबाई कैसी होती है !
अशोक चक्र हाथ में लिए मैंने कहा,
वैसे जैसे १४ अक्टूबर १९५६ में हिंदुओंकी हुई है !
अनजान बनकर अनजान ने, मुझसे यह पूछा
के इन्सान कैसा होता है !
विहार पे नतमस्तक होते हुए मैंने कहा,
वैसे जैसे हर किसे के दिमाख में बैठे होते है !
न जानते हुए भी उंगली मेरी उठी, पूछने लगी,
बता तेरा असली पता क्या है ?
वक्त के रफ़्तार से पहले, मुंह से निकला
'बुद्ध' मेरी पहचान, 'जय भीम' मेरा पता !
बताओ-ए-दुनिया वालो, आप की पहचान क्या है ?
पत्थर के टुकड़ो में इन्सान की दौलत कहा है ?
---प्रा. संदीप नंदेश्वर, नागपुर, ८७९३३९७२७५
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