Friday 25 July 2014

धनगर समाजाचे आरक्षण : वास्तव कि राजकारण

धनगर समाजाचे आरक्षण : वास्तव कि राजकारण 

We are Touchable, not Untouchable---by Mahadeo Jankar धनगर समाजाचे बारामतीचे नेते 

धनगर समाज महाराष्ट्रात आरक्षणासाठी रस्त्यावर उतरला आहे. आंदोलनाचा पवित्र घेऊन महाराष्ट्रातील राजकारणाला वेगळी कलाटणी दिली आहे. धनगर समाजाच्या या आंदोलनाच्या भावनिक बाजूशी आम्ही आहोत. पण वैचारिक आणि व्यावहारिक बाजू तपासून पाहाव्याच लागतील.
धनगर आणि धनगड या दोन नाव साधर्म्यामुळे हा गोंधळ मागच्या अनेक वर्षापासून उफाळलेला आहे. धनगड असा उल्लेख संविधान सूची मध्ये आलेला आहे. आणि धनगर ही जात म्हणून महाराष्ट्रात उल्लेख आलेला आहे. दोन्ही वेगळ्या जाती आहेत असेच आजपर्यंत मानण्यात आले.
भारतीय संविधान, मानववंशशास्त्र, समाजशास्त्र यांनी अधोरेखित केल्याप्रमाणे अनुसूचित जमाती आणि जाती यामध्ये मुलभूत अंतर आहे. सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संस्कृती या निकषाच्या आधारावर एखाद्या जाती किंवा जमातीला अनुसूचित जाती किंवा जमातीमध्ये समाविष्ट करण्याचा निर्णय राज्यसरकार घेऊन तो केंद्राकडे सुपूर्द करावा लागतो. केंद्र त्यावर निर्णय घेऊन त्या जाती किंवा जमातीचा समावेश अनुसूचित करीत असतो.
आज धनगर समाज अनुसूचित जाती किंवा जमातीच्या निकषात बसतो का ? जर बसत नसेल तर मुळ आदिवासींवर अन्याय होईल. त्यावर तोडगा म्हणून मराठा समाजासारखे वेगळे आरक्षण त्यांना देता येऊ शकते. पण त्यावर धनगर समाजाचे नेतृत्व करणारे काय दिशा समाजाला देतात त्यावर निर्भर करेल.
धनगर समाजाचे नेते महादेव जाणकर काल IBN LOKMAT वर बोलतांना म्हणाले कि, "आम्ही Untouchable नाहीत आम्ही Touchable आहोत. (We are Touchable, not Untouchable)" आणि म्हणून आम्ही बाबासाहेबांचे अनुयायी बनलो नाहीत. काय मानसिकता आहे ही ? जानकर यांचे म्हणणे सत्य असेल तर धनगर समाजाला आज राज्य सरकार किंवा केंद्र सरकार जवाब विचारण्याची गरज नाही. किंवा आरक्षण मागण्याचीही गरज नाही. त्यांच्या समाजाची आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थिती खराब असेल तर याचा जवाब त्यांनी धर्मसंस्थेला किंवा धर्मव्यवस्थेला किंवा ते ज्या Touchable धर्मांचे पाईक आहेत त्यांच्या धर्मप्रमुखांना विचारावा कि नाही ?
जिथे स्वातंत्र्याच्या ६५ वर्षानंतरही touchable आणि Untouchable अशी जातीय मानसिकता आरक्षण मागणार्यांच्या व एकूणच समाजाच्या मानसिकतेतून गेलेली नसेल तिथे अश्या वर्गांना कितीही आरक्षण दिले तरी समाजाच्या एकूण परिस्थितीत काहीच बदल घडणार नाही हेच सिद्ध होते. एकूणच हा राजकीय डाव भारतीय समाजाला जातीय मानसिकतेने (वर्णव्यवस्थेने) येणाऱ्या काळात सोलून काढेल एवढे मात्र निश्चित. तूर्तास तुम्ही सर्व तयार राहा एवढेच !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर.
 

Friday 11 July 2014

भुलभुलय्या अर्थसंकल्प 2014 (Budget 2014)

भुलभुलय्या अर्थसंकल्प 2014 (Budget 2014)
---डॉ. संदीप नंदेश्वर.


भारत सरकार का २०१४ अर्थसंकल्पीय बजेट ऊपर से संतुलित दिख रहा है लेकिन अन्दर से पूंजीपति और बुजुर्वा वर्ग के हित को ध्यान में रखकर बनाया गया है ! कुछ प्रतिशत पूंजीपति और बुजुर्वा वर्ग के विकास पर करोडो अबजो की आबादीवाले सामान्य जनता को निर्भर करना मेरे ख्याल से लोकतंत्र की सबसे बड़ी निंदा किये समान है ! अर्थव्यवस्था का इतना गलत प्राक्कथन सत्ता में बैठे अर्थतज्ञ कर रहे है जिससे देश फिर एक बार पूंजीपती विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के संघर्ष के तट पर खड़ा हो रहा है !

पूंजीपतियों का विकास और उनके लिए मुक्त अर्थव्यवस्था लाने के लिए की गई वकालत पर आधारित अर्थसंकल्प में रखा गया विकास का प्राक्कथन पूरी तरह से झूठा, बेबुनियाद और गलत है ! कुछ प्रतिशत पूंजीपतियों की आमदनी में बढ़ोतरी होने से सामान्य जनता के जनजीवन और तरक्की पर असर होगा ऐसा मानना लोकतंत्र के साथ और सामान्य जनता के साथ गद्दारी के समान है !

वर्तमान अर्थनेताओ की यह सामान्य धारणा बन चुकी है की, २० से ३० करोड़ जो सामान्य करदाता है उनको ५०००० रू. मात्र की थोड़ी सी आयकर छुट दे दी गई तो अर्थसंकल्प सर्वसमावेशक कहलायेगा ! और उसी भूल भुलय्या के आड़ में देश की संपत्ति और साधनों का विनिवेश PPP और FDI के जरिए पूंजीपतियों के हाथो में दिया जा सकता है ! इस धारणा के चलते २०१४ का अर्थसंकल्प बना है ऐसा मेरा मानना है !

सामान्य जनता के हित और विकास को ध्यान में रखकर दी जानेवाली सबसीडी ख़त्म कर नए पूंजीपतियों को उभरने के लिए दी जानेवाली सुविधाए और नीतियों पर कई करोब अब्जो रुपयों की सबसिडी बहाल कर देना भारत के अर्थव्यवस्था के साथ किया गया घिनोंना मजाक है ! यह जनता के साथ किया जाने वाला धोका है ! नई अर्थनीति के आड़ में सर्वहारा वर्ग को ख़त्म करना कतई समर्थनीय नहीं है !

उद्योग, व्यापर और नए पूंजीपतियों के विकास से देश के Fiscal Deficit में सुधार जरुर होगा पर जनता के आर्थिक जीवन में सुधार नहीं होगा ! PPP और FDI लाने से विकास दर में सुधार तो होगा पर सामान्य जनता की PCI (दरडोई) में कोई बदलाव नहीं आएगा ! महंगाई दर कम करने के लिए अमीरों की संपत्ति बढाने की वकालत नहीं की जा सकती ! सामान्य जनता की बचत ज्यादा हो इसके लिए कारगर कदम उठाए जाना ज्यादा जरुरी है ! अमीरी और गरीबी की बढती हुई दुरिया कम करने के बजाये उसको और गहरी करना देश हित में नहीं !

भारत की पेचीदा समाजरचना को देखते हुए सामाजिक अर्थसंकल्प ही देश के लिए तरक्की के नए रास्ते खोल सकता है ! लेकिन भारत सरकार के सत्ताधारियो ने देश के सामने रखे हुए अर्थसंकल्प ने घोर निराशा की है ! यह अर्थसंकल्प सामाजिक नहीं बल्कि पूंजीपति अर्थसंकल्प है !
***जबतक देश के अमीरों के हाथो में बढती हुई संपत्ति को उनके हाथो से सरकारी खजिनो लाने की कोशिश नहीं होती तबतक देश का विकास दर आगे नहीं बढ़ सकता !
***महंगाई की मार से त्रस्त मध्यम वर्ग को बचत की और बढ़ावा देना होगा क्योंकि यही वर्ग सबसे ज्यादा उपभोक्ता वर्ग है ! जिसकी आय आज सिर्फ खर्चे में ही जा रही है ! ऐसे में आर्थिक विकास का दर कैसे बढेगा ?
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री के विचारो को जबतक सत्ताधारी वर्ग और भारत सरकार अपने अर्थनीति में नहीं लाता तबतक भारतीय अर्थव्यवस्था की पूंजीपतियों के हाथो से बिघडती हुई बागडोर हम संभाल नहीं पाएंगे !

इस अर्थसंकल्प ने खेतिहर मजदूर, कामगार, बेरोजगार और किसानो को कुछ नहीं दिया ! जो कुछ भी दिया वो प्रस्थापित पूंजीपतियों, देश में आने वाले परदेशी बुजुर्वा वर्ग और देश के अन्दर पनपते हुए नए पूंजीपति को ही दिया है ! यह अर्थसंकल्प देश का नहीं बल्कि पूंजीपति का है ! जो कल सत्ता में आने के लिए फिर पूंजी देने वाले है ! इसलिए यह अर्थसंकल्प भुलभुलय्या है !
***सोचो***और अपनी राय रखो***

   ---डॉ. संदीप नंदेश्वर.