Monday, 27 June 2011

मुद्दत-ए-जिंदगी

मुद्दत-ए-जिंदगी
 
वो गुनाह गुनाह नहीं होता 
जो अनजाने में हो जाता है !
पर सोच समझ कर इन्सान का छल 
गुनाह से भारी अपराध होता है !
 
अपना हक़ पाने में
अगर कोई गुनाह है !
तो हमें ये गुनाह
बार बार करते रहना है !
 
प्यार और बंधुता से बड़ा 
कोई रिश्ता नहीं होता !
इन्सान से बड़ा
कोई भगवान नहीं होता !
 
पहचान है मेरी 
बस एक राहगीर जीतनी 
रस्ते अलग हो सकते है मगर 
मंजिल हर किसी की
होती है बस जिंदगी 
 
एक ही आसमान तले
क्यों हम बैठे है अपने अपने काफिले में
बरसती है आंधी या तूफान तो 
पहचान नहीं होती इंसानों की  
 
बस एक ही गुजारिश है
आप सभी भाई और बहनोंसे
थामे रहना डोर साथ साथ चलने की 
आखिर कौन जाने कहा लिखी है
घटना मुद्दत-ए-जिंदगी की !
---प्रा. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.  

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