Friday 20 May 2011

दलित साहित्य या आंबेडकरी साहित्य

दलित या आंबेडकरवादी 

हिन्दू संस्कृति में दबा हुआ समाज बाबासाहब की क्रांति के कारण इस व्यवस्था में अपनी एक अलग पहचान  बनाकर वर्णव्यवस्था  की दीवारे गिरा दी थी ! गुलामी की जंजीरों को नकारते हुए इस समाज ने मानवीय अधिकारों के प्राप्ति के खातिर यहाँ के पुरोगामियो से क्रांति की शुरुवात की ! बाबासाहब ने भारतीय संविधान में स्थापित किये हुए मुल्योंको लेकर जाती की श्रेणी में निचले पायदान पर रहने वाला यह समाज आज तर्रक्की की चरम सीमा तक पहुच चूका है !  बाबासाहब के महापरिनिर्वान  के बाद समाज में एक अलग चेतना ने जन्म लिया ! बाबासाहब के काल में खुद को सुरक्षित महसूस करने वाला समाज अचानक असुरक्षितता महसूस करने लगा ! आज तक बाबासाहब ने अपनी जिंदगी की कसोटी में यहाँ के हर इन्सान को इन्सान सा न्याय दिलाने में कोई कसार नहीं छोड़ी थी ! कानून के आधार पर समाज को सुरक्षित किया गया तो कानून ही इन्सान को सुरक्षितता प्रदान करेगा ! कल में इस समाज को सुरक्षितता देने वाला कोई हो हो पर कानून इनकी रक्षा जरुर करेगा ! यह सोचकर बाबासाहब ने बड़ी मेहनत से और यहाँ के जातिवादी, धर्मांधो से लड़कर भारतीय संविधान को भारत के निचले स्तर में रहने वाले इन्सान को भी अधिकार दिलाये !
इसी से प्रेरित होकर बाबासाहब के साथ काम करने वाले और समाज के दबे हुए लोगो के जबान में क्रांति ने जन्म लिया ! यह जबान अब बोलने लगी थी ! व्यवस्था के खिलाफ अपनी कलम से आग उगलने लगी थी ! समाज को प्रेरित कर उनमे देशभक्ति और इंसानियत का जज्बा पैदा कर रही थी ! दहशत  में जीने वाला समाज अपने अधिकार और न्याय के लिए यहाँ की ब्राम्हणवादी व्यवस्था पर दहशत ज़माने की कोशिश कर रहा था ! इसमें वो कारगर भी साबित हो रहा था ! अस्पृश्य, साधनहीन, अल्पसंख्यांक समाज लिख रहा था ! बाबासाहब उनकी प्रेरणास्त्रोत थे ! बहिष्कृत भारत, मूकनायक, जनता . वर्तमान पत्र और मासिक पत्रिकओंसे लोग अपने ऊपर हुए जुलुम की दास्ताँ लिख रहे थे ! व्यवस्था के छल, कपट और षड़यंत्र के प्रति लढ़ रहे थे ! समाज को प्रेरित कर जातिवादी, धर्मवादी हिन्दू व्यवस्था की जड़ो को हिला रहे थे ! उन्हें तोड़ रहे थेइससे जो  साहित्य उत्पन्न हुआ वो बाबासाहब के व्यक्तिमत्वा और विचारोंके इर्द गिर्द ही लिखा जा रहा था ! जिसमे मुख्यतः से जाटव, अहिरे, बाली . जैसे अनेक लेखक और साहित्यकार व्यवस्था को अपनी कलम की ताकत से हिला रहे थे ! इनके द्वारा निर्मित किया गया साहित्य यह पूरी तरहसे आंबेडकरवादी साहित्य ही था !
बाबासाहब के पच्छात  पुरे देश में आंबेडकरवाद कि लहर दौड रही थी ! अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत लोगो मे  पैदा होने लगी थी ! लोग लिख रहे थे ! व्यवस्था के खिलाफ साहित्य बन रहा था ! हिंदूवादी व्यवस्था का नकार साहित्य के रूप में प्रकट होने लगा था ! एक साहित्य प्रवाह गतिमान रूप ले रहा था ! ब्राम्हणी परंपरा को तोड़कर आंबेडकरवादी  साहित्य ने अपनी एक अलग पहचान साहित्य क्षेत्र में कर दी थीलोग प्रेरित हो रहे थे ! प्रस्थापित व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे थे ! जुलुम और अन्याय के खिलाफ क्रांति कर ब्राम्हणवाद  को अपने पैरो तले कुचल रहे थे ! विद्रोह की ज्वालाए साहित्य के रूप में  समाज से  प्रतिबिंबित हो रही थी ! जिसे दलित साहित्य का नाम दिया गया ! एक ऐसा साहित्य प्रवाह जिसमे विद्रोह, नकार, अन्याय, जुल्म, गुलामी, जातीयता का शिकार ऐसे कई रूप नजर आते थे ! अस्पृश्य, मागास, अल्पसंख्यांक, पिछड़े, आदिवासी समुदाय के लोगो के द्वारा लिखे गए साहित्य को जो उपरोक्त विषय की चर्चा के रूप में समाज में प्रतिध्वनित होते थे ! उसे ही दलित साहित्य का नाम दिया गया ! इतनाही नहीं बल्कि उपरोक्त विषय पर लिखा गया साहित्य जो  किसीनेभी लिखा हो उसे दलित साहित्य का दर्जा दिया गया ! इस साहित्य को दलित साहित्य के रूप में मान्यता देने के पीछे भी यहाँ की चातुर्वण्य  व्यवस्था का षड़यंत्र ही था ! ताकि इस साहित्य को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने तोड़ी हुई जाती की और वर्णव्यवस्था की बंधनों को नकारते हुए इसी वार्न्व्यावास्था के सबसे निचले स्तर के लोगो द्वारा तैयार किया गया साहित्य याने दलित साहित्य. दलित नाम के साथ हिन्दू व्यवस्था खुदबखुद जुड़ जाती है ! और वही पर बाबासाहब के द्वारा चलाये गए अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन को शह दिया जाता है ! इसी षड़यंत्र की भेट चढ़ गया दलित साहित्य !
डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी के विचार प्रभाव से उत्त्पन्न यह साहित्य दलित साहित्य के नाम से मराठी साहित्य विश्व मे अपनी एक अलग पहचान बना चुका था ! अब से साहित्य सिर्फ मराठी साहित्य हि नाही था बल्की  भारत कि जातीय गुलामगिरी को दुनिया के सामने रखणे वाला, अन्याय के खिलाफ विद्रोह करणे वाला जागतिक साहित्य क्षेत्र बन चुका था ! १९६० के दशक मे पैदा होणे वाला यह साहित्य अल्पकाल मे अपनी महानता सिद्ध कर चुका था ! पर दलित नाम इस साहित्य से जुडा होणे के कारण भारत कि जातीयता और वर्णव्यवस्था जो कि तो बनी हुई थी !  जातीयता और अस्पृश्यता को जड से खत्म करणे का बाबासाहाब का सपना दलित शब्द के कारण अपुरा लगने  लगा था ! इसलिये १९७६ मे सर्वप्रथम दलित साहित्यिक के रूप मे उभर कर आये हुए कुछ  साहित्यकारोने यह निर्णय लिया की आज के बाद यह दलित साहित्य अपने अलग नाम से पहचाना जायेगा ! जिसमे दलित शब्द को नकार कर दलित साहित्य के बदले अब इसकी पहचान आंबेडकरी  साहित्य के रूप में की जाएगी ! जातिवादी एवं वर्णवादी व्यवस्था के प्रभाव में जी रहे कुछ साहित्यकारोने इसका  विरोध किया तो कुछ परिवर्तन वादी साहित्याकारोने इस निर्णय का स्वागत किया ! लेकिन इस बिच यह साहित्य आन्दोलन में २ गुट बन गए ! एक गुट अपने साहित्य की पहचान दलित साहित्य के रूप में मानाने वाला तो दूसरा गुट अपने साहित्य की पहचान आंबेडकरी साहित्य के रूप मे करणे लगा !
आंबेडकरी साहित्य यह सिर्फ विद्रोह, नकार, अन्याय, जुल्म, गुलामी, जातीयता को हि अपना विषय नही बनाता बल्की इससे उभरकर एक परिवर्तन वादी  व्यवस्था कि मांग करता है !   एक ऐसी व्यवस्था जो समता, न्याय  और स्वातंत्र्य पर निर्भर हो ! जातीय अन्याय और अत्याचार को चित्रित करना हि इसका काम नाही है बल्की पर्याय के रूप मे समानतावादी समाज व्यवस्था कि रचना करना आंबेडकरवादी साहित्य का काम है ! इसलिये आंबेडकरी साहित्य का क्षेत्र एवं विस्तार यह दलित साहित्य से भी ज्यादा बडा और सटीक है ! अगर दलित साहित्य का उद्गम १९६० कि दशक मे  हुआ है तो आंबेडकरी साहित्य उससे काफी पहले १९२४ मे हि दुनिया के सामने आय है ! जिसमे सबसे अहम भूमिका बाबासाहाब के आंदोलन अवं विचारों की रही है !
आज भारत का संविधान बन चूका है ! आज हर नागरिक जाती के या वर्णवादी स्थान से नहीं बल्कि भारतीय नागरिक के नाम से पहचाने जाने लगा है ! यह पहचान दिलाने में बाबासाहब की भूमिका महत्वपूर्ण रही है ! इसलिए आज भी कुछ हिन्दू परम्परावादियों के तलवे चाट रहे लोग दलित नाम का समर्थन कर रहे है ! क्या ये सही है ? क्या हमने अपनी पहचान परिवर्तन वादी बनाई है ? क्या हम आंबेडकरवादी बन गये है ? आज ऐसा कोई साहित्य नाही जो परिवर्तनवाद  के क्षेत्र मे काम कर रहा हो पर उसपर बाबासाहाब के विचारो का प्रभाव न हो ? हर साहित्य जो आज भारतीय जातीवादी, परंपरावादी, धर्मवादी, वर्णवादी व्यवस्था को नकार कर उसे बदलना चाहता है ! वह निसंदेह आंबेडकरवादी साहित्य ही है ! 
दलित साहित्य अगर अपनी पहचान दलित नाम से हि करता है तो निसंदेश वह यहाँ की हिन्दू परंपरा बनाए रखना चाहता है ! 
उपरोक्त सभी चर्चा से यही कहा जा सकता है की आंबेडकरी साहित्य का क्षेत्र, दर्जा और पहचान दलित साहित्य से बडा है ! हिंदू परंपराओंको  नाकारणे कि क्षमता दलित साहित्य से ज्यादा आंबेडकरी साहित्य यह नाम मे ज्यादा है ! इसलिये क्या हम परिवर्तनवाद के साथ चलेंगे ? या हिंदू धर्म कि परंपरा और साहित्य कि उंगलिया पकडकर चलेंगे ? क्या हम दलित कहलाने मे अपनी धन्यता मानेंगे ? या खुद को आंबेडकरवादी कहकर स्वाभिमान से जिना चाहेंगे ? क्या हम धर्म मे रहना पसंद करेंगे ? या धम्म मे रहना पसंद करेंगे ? इन सभी सवालो का जवाब हमे देना होगा ! सिर्फ देना हि नही बल्की यह सवाल खुद से भी पुछना  होगा ! हमे दलित कहाकर जिना है या आंबेडकरवादी कहकर ? इसलिये दलित साहित्य या आंबेडकरवादी साहित्य इसका जवाब अब समाज को हि देना होगा ! खरीदे गये साहित्यिक और ब्राम्हनवादी व्यवस्था कि चाचेगिरी करणे वाले साहित्यिक आपको मूर्ख बनकर आपकी आंबेडकरवादी पहचान छीनना चाहते है ?  क्या समाज अपनी याह पहचान खोना चाहता है ! हजारो साल कि सामाजिक गुलामी ने दि हुई दलित यह घीन्नोनी पहचान क्या समाज आज भी खोना नही चाहेगा ? परिवर्तन अगर चाहते हो तो समाज को  अपनी दलित पहचान भुलाना होगा ! आंबेडकरी साहित्य हि आपकी यह  पहचान भुलकर इंसानियत कि आंबेडकरी पहचान दिला सकता है ! इसलिये अब यह समाज का उत्तरदायित्व है कि वो कीस साहित्य को अपनाता  है  ! कीस नाम को अपनाता है ! भविष्य कि सामाजिक रचना एवं आनेवाली भविष्य कि पिढी का भविष्य उसी पर निर्भर रहेगा !
------प्रा. संदीप नंदेश्वर, नागपूर, ८७९३३९७२७५
 

1 comment:

  1. Very nice analysis Sandeepji.It is said that literature is a reflection of life.But it is a half truth.The literature written by established writers deny the place for a man who is oppressed and at the lowest order of the society.To represent the life of these people various trends of literature came into being i.e.Marxist,Feminist,Burgeouis literature, African American Literature and Ambedkarite literature. After 1956 the untouchables got a Buddhist identity by converting themselves from Hindu religion to Boudha Dhamma.A large number of educated Ambedkarites started writing literature showing their anger against the oppressed system.
    After formation of Dalit Panther in 1972, literature got a new appelation i.e. Dalit literature.The appelation was given by established literary critic to the literature of erstwhile untouchables who were inspired by Ambedkarite Philosophy which is another name of equality,fraternity,liberty.Ambedkarite Philosophy is for bringing out revolutionary changes in the society by using compassion, metta,Prajna and non-violence of Buddha.Ambedkarite literature established the dignity of common man.Hence to consider it as a dalit literature is a mockery of great Buddhist Ambedkarite philosophy.'Dalit' is a state.It is symbolic of inferior position of particular community in a society.It is said that as the literature was created by Dalit writers it is considered to be Dalit literature.But critic forget one thing that movements and philosophies give birth to any literature.Hence the literature which is a literature of labourers but inspired by Marxist thought was called as Marxist literature.Hence if the literature of the people who are liberated from the clutches of hinduism and inspired by Ambedkarite philosophy should be considered as Ambedkarite literature though it is written by anyone.

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