Sunday, 11 September 2011

कलम

कलम

अब मुझे गालियों की आदत सी हो चुकी है
पत्थर से क्या मारते हो तलवार भी चल चुकी है
हजारो की तादात में कुछ को लेकर चलने वाला
पीठ पीछे नहीं सामने की लढाई लढने में माहिर हो चूका है

जब हौसले बुलद हो तो जान की बाजी लग चुकी है
गर इरादों में हो ताकत तो डर भी रास्ता बदल चुकी है
अरे भिमबंदो से क्या टकराते हो बार बार
इतिहास की किताब लढते लढते हार चुकी है

हथियार से खेलना हमें भी आता है
पर अब हमारा वास्ता बदल चूका है
तुम खून बहाके हथियार की दुहाई देते हो
बिना खून के कलम वाला हतियार
हमारी हर लढाई जीत चूका है

लड़ने से तुम्हारी तलवार हो या हो हथियार
बोथड होकर लढने के काम की नहीं होती
अरे डराना, धमकाना, पीठ पीछे लढना अब बंद कर दो
वरना हर लढाई में हमारी कलम की तलवार
और भी जोरो से तड़पने लगती है 

तुम नहीं जानते कलम की ताकत दुनिया जान चुकी है
जितना सताओगे, तरसाओगे कलम अब चल चुकी है
चाहे कितनी भी दुरिया तय करनी पढ़े
ये कलम न कभी थमने वाली है, न कभी रुकने वाली है
---प्रा. संदीप नंदेश्वर, नागपुर, ८७९३३९७२७५

  

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