Friday, 5 September 2014

शिक्षा के बाजारीकरण में प्रधानमंत्री का बचपना...

शिक्षा के बाजारीकरण में प्रधानमंत्री का बचपना...

प्रातिनिधिक शिक्षण दिन के शुभ अवसर पर देश के प्रधानमंत्री ने पुरे देश को स्कुली बच्चो और शिक्षको को संबोधित किया ! सब ने खुद को बडा हि गौरवांकित महसूस किया ! क्योकी ये देश में पहली बार हो रहा था ! जबाबदेही और आम जनता से संवाद करने वाली सरकार की इस पहल का मै स्वागत करता हु !
लेकिन स्कूली बच्चो और शिक्षकों के साथ प्रधानमंत्री महोदय का उनके बचपन के दिनों का हुआ वार्तालाप क्या देश के बिघडते शिक्षा स्तर को सुधार पाएगा ! शिक्षक दिन के अवसर पर अपने बचपने में खोये हुए हमारे मा. प्रधानमंत्री जी का यह वार्तालाप उतनाही बचपना भरा हुआ ! हमें अपेक्षाए थी, इस देश के ७५ % गरीब बच्चो को अपेक्षाए थी, शिक्षा के बढ़ते हुए बाजारीकरण से निजात पाने के लिए स्कुल और पढाई छोडने की कगार पर खड़े बच्चो को अपेक्षाए थी की प्रधानमंत्री जी शिक्षा के ऊपर होनेवाले सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी करेंगे ! अपेक्षा ये थी की प्रायवेट स्कूलों की बढती हुई फी के कारन समाज का बहोत बड़ा तबका शिक्षा से वंचित हो रहा है ! उससे निजात पाकर सबके लिए शिक्षा के धोरण में कुछ बदलाव आकर प्रायवेट स्कुल मालिको में लगाम लगाई जाएगी ! शिक्षा के बाजारीकरण से परेशांन शिक्षको को उनके Management के मानसिक और गुलामिक व्यवस्था से दूर कर कुछ नई उम्मीद देश का प्रधानमंत्री देगा ! पर यह सबकुछ हशियाने पे रखकर सिर्फ खुद की प्रवृत्ती उभरते हुए भारत पर लादने का प्रयास किया गया ! जो की निसंदेह सराहनीय नहीं कहा जा सकता ! देश के प्रधानमंत्री देश में चल रही शिक्षा व्यवस्था और समाज में शिक्षा से दूर हो रहे बढ़ते प्रमाण के बारे में कोई अंदाजा नहीं है ! बस अपनी प्रवृत्ती और प्रकृती को किसी भी हालात में देश के जनमन पर लादना अपनी हुकुमियत और हुकूमत के माध्यम से तानाशाही के तरफ बढ़ते कदम का एक प्रतिक ही माना जायेगा !
देश की सरकार के ऐसे जनता से संवाद भरे आयोजनों का भविष्य में भी स्वागत रहेगा ! पर तानाशाही के पैर फ़ैलाने की लिए नहीं बल्कि असलियत को समझकर देश को सही राह दिखाने के लिए वह आयोजन होना चाहिए !
भारत सरकार के लिए मै समझता हु की मेरी प्रतिक्रिया उन तमाम देशवासियों की है जो शिक्षा के बाजारीकरण से तंग आकर इस प्रायवेट शिक्षा प्रणाली को ख़त्म कर शिक्षा के माध्यम से विकास की एक नई ऊंचाई को नापना चाहते है !
धन्यवाद् !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, भारीप. नागपुर.

Saturday, 9 August 2014

निजीकरण के परिप्रेक्ष में आरक्षण पर चर्चा

फ़िलहाल भारत देश और समाज बड़ी ही पेचीदा दौर से गुजर रहा है ! एकतरफ सरकार वैश्विकरण को अपनाकर निजीकरण की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रही है ! निजीकरण से देश को खौकला बनाने की कोशिश पूंजी के बढ़ोतरी के आड़े चल रही है ! तो दूसरी तरफ समाज का कई सालो से दबा हुआ निचला तबका आरक्षण जैसे मौलिक अधिकार के तरफ बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है ! आये दिन समाज का कोई न कोई तबका आरक्षण की मांग को लेकर रस्ते पर उतर रहा है या फिर राजनीती के लिए उन्हें रस्ते पर उतारा जा रहा है ! भविष्य की दिशाए और नीतिया न तो पूंजीपति भारत सरकार के पास है और न तो आरक्षण की मांग करने वाले समाज के अविकसित वर्ग के पास ! इसी पेचीदा हालात से आज देश गुजर रहा है !
मौलिक सवाल यह है की सरकार अगर एकतरफ निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और दूसरी तरफ आरक्षण की भी पैरवी कर रही है तो यह स्पष्ट है की देश की सरकार देश और समाज को दोखा दे रही है ! आरक्षण और निजीकरण एक साथ साथ आगे नहीं बढ़ सकते ! आरक्षण तभी कारगर होगा जब सरकार, संपत्ति, उद्योग और सेवा क्षेत्र लोकतांत्रिक सरकार के हाथो में हो ! बिमा, रेल्वे, बैंकिंग, शिक्षा, सुरक्षा, जैसे क्षेत्र जो बड़ी तेजी से पूंजीपतियों के हाथो में देने की मानो होड़ सी लगी है ! ऐसे समय में आरक्षण चाहे किसीको भी और कितना भी दे दो ! कोई लाभ नहीं होने वाला !
भारतीय समाज का दबा हुआ निचला तबका जो खुद को आरक्षण में सुरक्षित करना चाहता है वो पहले देश में सरकार के माध्यम से चल रहे निजीकरण के खिलाफ पहल करे ! निजीकरण को रोके तो ही आरक्षण बच सकता है ! वरना यह जातिवादी पूंजीवादी लोगो की कटपुतली सरकारे और उनके शिकंजे में फंसे राजनेता आप को आरक्षण देकर निजीकरण के जरिए खुद ब खुद ख़त्म कर देंगे ! ""न रहेगा बांस और न बजेगी बासुरी !""
इसलिए सभी आरक्षणवादी लोगो से नम्र निवेदन है की आरक्षण मांगने की बजाये आरक्षण को ख़त्म करने वाले निजीकरण को ख़त्म करने की मांग करो ! उसी में आरक्षण की सही अहमीयत छुपी हुई है !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.

Friday, 25 July 2014

धनगर समाजाचे आरक्षण : वास्तव कि राजकारण

धनगर समाजाचे आरक्षण : वास्तव कि राजकारण 

We are Touchable, not Untouchable---by Mahadeo Jankar धनगर समाजाचे बारामतीचे नेते 

धनगर समाज महाराष्ट्रात आरक्षणासाठी रस्त्यावर उतरला आहे. आंदोलनाचा पवित्र घेऊन महाराष्ट्रातील राजकारणाला वेगळी कलाटणी दिली आहे. धनगर समाजाच्या या आंदोलनाच्या भावनिक बाजूशी आम्ही आहोत. पण वैचारिक आणि व्यावहारिक बाजू तपासून पाहाव्याच लागतील.
धनगर आणि धनगड या दोन नाव साधर्म्यामुळे हा गोंधळ मागच्या अनेक वर्षापासून उफाळलेला आहे. धनगड असा उल्लेख संविधान सूची मध्ये आलेला आहे. आणि धनगर ही जात म्हणून महाराष्ट्रात उल्लेख आलेला आहे. दोन्ही वेगळ्या जाती आहेत असेच आजपर्यंत मानण्यात आले.
भारतीय संविधान, मानववंशशास्त्र, समाजशास्त्र यांनी अधोरेखित केल्याप्रमाणे अनुसूचित जमाती आणि जाती यामध्ये मुलभूत अंतर आहे. सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संस्कृती या निकषाच्या आधारावर एखाद्या जाती किंवा जमातीला अनुसूचित जाती किंवा जमातीमध्ये समाविष्ट करण्याचा निर्णय राज्यसरकार घेऊन तो केंद्राकडे सुपूर्द करावा लागतो. केंद्र त्यावर निर्णय घेऊन त्या जाती किंवा जमातीचा समावेश अनुसूचित करीत असतो.
आज धनगर समाज अनुसूचित जाती किंवा जमातीच्या निकषात बसतो का ? जर बसत नसेल तर मुळ आदिवासींवर अन्याय होईल. त्यावर तोडगा म्हणून मराठा समाजासारखे वेगळे आरक्षण त्यांना देता येऊ शकते. पण त्यावर धनगर समाजाचे नेतृत्व करणारे काय दिशा समाजाला देतात त्यावर निर्भर करेल.
धनगर समाजाचे नेते महादेव जाणकर काल IBN LOKMAT वर बोलतांना म्हणाले कि, "आम्ही Untouchable नाहीत आम्ही Touchable आहोत. (We are Touchable, not Untouchable)" आणि म्हणून आम्ही बाबासाहेबांचे अनुयायी बनलो नाहीत. काय मानसिकता आहे ही ? जानकर यांचे म्हणणे सत्य असेल तर धनगर समाजाला आज राज्य सरकार किंवा केंद्र सरकार जवाब विचारण्याची गरज नाही. किंवा आरक्षण मागण्याचीही गरज नाही. त्यांच्या समाजाची आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थिती खराब असेल तर याचा जवाब त्यांनी धर्मसंस्थेला किंवा धर्मव्यवस्थेला किंवा ते ज्या Touchable धर्मांचे पाईक आहेत त्यांच्या धर्मप्रमुखांना विचारावा कि नाही ?
जिथे स्वातंत्र्याच्या ६५ वर्षानंतरही touchable आणि Untouchable अशी जातीय मानसिकता आरक्षण मागणार्यांच्या व एकूणच समाजाच्या मानसिकतेतून गेलेली नसेल तिथे अश्या वर्गांना कितीही आरक्षण दिले तरी समाजाच्या एकूण परिस्थितीत काहीच बदल घडणार नाही हेच सिद्ध होते. एकूणच हा राजकीय डाव भारतीय समाजाला जातीय मानसिकतेने (वर्णव्यवस्थेने) येणाऱ्या काळात सोलून काढेल एवढे मात्र निश्चित. तूर्तास तुम्ही सर्व तयार राहा एवढेच !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर.
 

Friday, 11 July 2014

भुलभुलय्या अर्थसंकल्प 2014 (Budget 2014)

भुलभुलय्या अर्थसंकल्प 2014 (Budget 2014)
---डॉ. संदीप नंदेश्वर.


भारत सरकार का २०१४ अर्थसंकल्पीय बजेट ऊपर से संतुलित दिख रहा है लेकिन अन्दर से पूंजीपति और बुजुर्वा वर्ग के हित को ध्यान में रखकर बनाया गया है ! कुछ प्रतिशत पूंजीपति और बुजुर्वा वर्ग के विकास पर करोडो अबजो की आबादीवाले सामान्य जनता को निर्भर करना मेरे ख्याल से लोकतंत्र की सबसे बड़ी निंदा किये समान है ! अर्थव्यवस्था का इतना गलत प्राक्कथन सत्ता में बैठे अर्थतज्ञ कर रहे है जिससे देश फिर एक बार पूंजीपती विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के संघर्ष के तट पर खड़ा हो रहा है !

पूंजीपतियों का विकास और उनके लिए मुक्त अर्थव्यवस्था लाने के लिए की गई वकालत पर आधारित अर्थसंकल्प में रखा गया विकास का प्राक्कथन पूरी तरह से झूठा, बेबुनियाद और गलत है ! कुछ प्रतिशत पूंजीपतियों की आमदनी में बढ़ोतरी होने से सामान्य जनता के जनजीवन और तरक्की पर असर होगा ऐसा मानना लोकतंत्र के साथ और सामान्य जनता के साथ गद्दारी के समान है !

वर्तमान अर्थनेताओ की यह सामान्य धारणा बन चुकी है की, २० से ३० करोड़ जो सामान्य करदाता है उनको ५०००० रू. मात्र की थोड़ी सी आयकर छुट दे दी गई तो अर्थसंकल्प सर्वसमावेशक कहलायेगा ! और उसी भूल भुलय्या के आड़ में देश की संपत्ति और साधनों का विनिवेश PPP और FDI के जरिए पूंजीपतियों के हाथो में दिया जा सकता है ! इस धारणा के चलते २०१४ का अर्थसंकल्प बना है ऐसा मेरा मानना है !

सामान्य जनता के हित और विकास को ध्यान में रखकर दी जानेवाली सबसीडी ख़त्म कर नए पूंजीपतियों को उभरने के लिए दी जानेवाली सुविधाए और नीतियों पर कई करोब अब्जो रुपयों की सबसिडी बहाल कर देना भारत के अर्थव्यवस्था के साथ किया गया घिनोंना मजाक है ! यह जनता के साथ किया जाने वाला धोका है ! नई अर्थनीति के आड़ में सर्वहारा वर्ग को ख़त्म करना कतई समर्थनीय नहीं है !

उद्योग, व्यापर और नए पूंजीपतियों के विकास से देश के Fiscal Deficit में सुधार जरुर होगा पर जनता के आर्थिक जीवन में सुधार नहीं होगा ! PPP और FDI लाने से विकास दर में सुधार तो होगा पर सामान्य जनता की PCI (दरडोई) में कोई बदलाव नहीं आएगा ! महंगाई दर कम करने के लिए अमीरों की संपत्ति बढाने की वकालत नहीं की जा सकती ! सामान्य जनता की बचत ज्यादा हो इसके लिए कारगर कदम उठाए जाना ज्यादा जरुरी है ! अमीरी और गरीबी की बढती हुई दुरिया कम करने के बजाये उसको और गहरी करना देश हित में नहीं !

भारत की पेचीदा समाजरचना को देखते हुए सामाजिक अर्थसंकल्प ही देश के लिए तरक्की के नए रास्ते खोल सकता है ! लेकिन भारत सरकार के सत्ताधारियो ने देश के सामने रखे हुए अर्थसंकल्प ने घोर निराशा की है ! यह अर्थसंकल्प सामाजिक नहीं बल्कि पूंजीपति अर्थसंकल्प है !
***जबतक देश के अमीरों के हाथो में बढती हुई संपत्ति को उनके हाथो से सरकारी खजिनो लाने की कोशिश नहीं होती तबतक देश का विकास दर आगे नहीं बढ़ सकता !
***महंगाई की मार से त्रस्त मध्यम वर्ग को बचत की और बढ़ावा देना होगा क्योंकि यही वर्ग सबसे ज्यादा उपभोक्ता वर्ग है ! जिसकी आय आज सिर्फ खर्चे में ही जा रही है ! ऐसे में आर्थिक विकास का दर कैसे बढेगा ?
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री के विचारो को जबतक सत्ताधारी वर्ग और भारत सरकार अपने अर्थनीति में नहीं लाता तबतक भारतीय अर्थव्यवस्था की पूंजीपतियों के हाथो से बिघडती हुई बागडोर हम संभाल नहीं पाएंगे !

इस अर्थसंकल्प ने खेतिहर मजदूर, कामगार, बेरोजगार और किसानो को कुछ नहीं दिया ! जो कुछ भी दिया वो प्रस्थापित पूंजीपतियों, देश में आने वाले परदेशी बुजुर्वा वर्ग और देश के अन्दर पनपते हुए नए पूंजीपति को ही दिया है ! यह अर्थसंकल्प देश का नहीं बल्कि पूंजीपति का है ! जो कल सत्ता में आने के लिए फिर पूंजी देने वाले है ! इसलिए यह अर्थसंकल्प भुलभुलय्या है !
***सोचो***और अपनी राय रखो***

   ---डॉ. संदीप नंदेश्वर.

Sunday, 26 January 2014

सिर्फ सत्ता बदलने से परिवर्तन नहीं होता !

लीबिया में गद्दाफी के हुकुमतंत्र को बदलकर लोकतंत्र लाने के लिए आन्दोलन खड़ा किया गया ! और गद्दाफी को फांसी पर लटकाकर लोकतंत्र की नीव रखी गई !

आज भारत में अरविंद केजरीवाल का हुकुमतंत्र देश के लोकतंत्र के खिलाफ आग उगल रहा है ! सड़क छाप आन्दोलन हो या खुद को Anarchist कहने की बात हो यही जाहिर होता है की लोकतंत्र के खिलाफ आने वाले दिनों में जो आन्दोलन खड़ा होगा उसकी नीव अरविन्द केजरीवाल के माध्यम से रखी जा रही है ! देश की जनता को मुर्ख बनाकर कुछ पार्टिया लोकतंत्र का आधार लिए केजरीवाल पर टिपण्णी जरूर कर रहे है ! लेकिन अन्दर से केजरीवाल को मदत भी कर रही है ! क्योंकि इस देश से लोकतंत्र को ख़त्म करना जिनका उद्देश है उनके लिए केजरीवाल एक नए परिवेश में जमीन तैयार करने का काम कर रहे है !
सोच में फर्क हो सकता है लेकिन वास्तविकता में नहीं !


जब दिल और दिमाग काम करना बंद कर दे तो इन्सान दूसरो की बुरोइयो में लुप्त होकर बुनियादी तत्व को अक्सर भूल जाते है !और अविचारी निति सामने आने लगती है ! जो आजकल केजरीवाल के साथ हो रही है ! और उनके समर्थक भी उसी दिशा में अग्रेसर हो रहे है ! केजरीवाल बुनियादी बातो को दोहरा तो रहे है लेकिन उन बुनियादी बदलाव को आम जनता से दूर ही रख रहे है ! 2+2=4 बोलो या 1+3=4 बोलो ! बात तो एक ही है ! और हल भी एक ! बदलाव उसे कहते है जिसमे 4+4=8 किया जाये !

सत्ता परिवर्तन होता है ! लोग सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही चाहते है ! केजरीवाल आने से सत्ता परिवर्तन हुआ ! व्यवस्था परिवर्तन नहीं ! और लोगो के जीवनकाल में कोई परिवर्तन नहीं ! यही सोच आज देश के सामने गंभीर समस्या बन कर उभर रही है ! सिर्फ सत्ता परिवर्तन होने से बदलाव नहीं होता ! संवैधानिक संस्कृति की नीव में पलने वाली विचारधारा के संचलन में जबतक उस संकृति और विचारधारा से ताल्लुक रखनेवाले नहीं होंगे ! तबतक देश किसी भी बदलाव या परिवर्तन की दिशा में अग्रसर नहीं होगा !

सिर्फ सत्ता बदलने से परिवर्तन नहीं होता ! असल में परिवर्तन के लिए सत्ता में बैठे लोगो की विचारधारा बदलनी चाहिए ! वरना हम जहा थे वही पर रुक जायेंगे ! गुलाम को तो खैर गुलामी की आदत पड़ चुकी होती है ! इसलिए उनके लिए कोई नयी मुसीबत नहीं होगी ! हाँ ! लेकिन जिन लोगो को लग रहा है की वो सुरक्षित रहेंगे उनको आने वाली गुलामी से डरने की ज्यादा जरुरत है !

"लंगूर के हाथ में अंगूर" कुछ ऐसी ही परिस्थितिया आज कल दिल्ली में चल रही है ! दिल्ली वाले आज खुद को कोस रहे होंगे की हमने किस बला को दिल्ली में राज करने का मौका दिया है ! जिनकी खुद की संस्कृति विनाशकारी होती है वो राजनितिक संस्कृतिको भी विनाशकारी बना देते है !@ जिसका खूब नमूना "आप" के माध्यम से केजरीवाल दिल्ली और देश के सामने ला रहे है ! लोकतंत्र की राजनितिक संस्कृति जिन्हें मान्य नहीं, जिन्होंने आज तक लोकतंत्र को ही माना नहीं वो "आप" और "कजरी" भक्त इस बात को नहीं समझ सकते. लेकिन देश देख भी रहा है और समझ भी रहा है ! "आप" का "बाप" जनता इतनी बुद्धू है यह समझने की गलती न करे !


---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.

Constitutional Morality

(((आता आपल्याला आंबेडकरी समूहाबाहेर येऊन इतर बहुजन समाजाला सोबत घेऊन त्याचं नायकत्व आपल्याला स्वीकाराव लागेल त्यातच यश मिळू शकेल...By Pravin Jadhav))) 101 % खरे आहे. जे फार पूर्वी व्हायला पाहिजे होते. पण नाईलाजाने आता ते या पिढीला म्हणावे लागते किंवा ते करायला प्रवृत्त व्हावे लागते. आमच्या डोक्यातील विचार, आचार व कृती आराखडा कुणीही मिटवू शकणार नाही हे त्रिकालाबाधित सत्य आहे. त्यामुळे आम्ही हिंदू म्हणविणाऱ्या बहुजनांमध्ये गेलो तरी त्यांच्यात परिवर्तन करू पण आपल्यात त्यांच्यामुळे परिवर्तन होणार नाही. हे खंबीरपणे जोपर्यंत हा आंबेडकरी समूह समजून घेत नाही तोपर्यंत बहुजन समाजाचे नायकत्व आंबेडकरी माणसाकडे येणार नाही. हिंदुप्रणीत बहुजनांच्या आदर्श (देव / मंदिर) व संस्कृतीत दर्शक किंवा पाहुणे म्हणून आपण एक भाग बनलो म्हणजे आपल्यातला आंबेडकरवाद किंवा buddhism संपला असा अर्थ निघत नाही. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर Constitutional Morality च्या संबंधाने बोलतांना म्हणतात कि "Recognition of Pluralism is the part of Cultivation of Constitutional Morality in India" वैविध्यतेला मान्यता दिल्यानेच या देशात संवैधानिक नैतिकतेची रुजवण करता येईल. असे म्हणणाऱ्या डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या अनुयायांनीच आता ठरवावे कि आम्हाला एकाला चलो रे स्वीकारायचे कि वैविध्यतेला स्वीकारून संवैधानिक नैतिकतेची रुजवण करतांना बहुजनांचे नेतृत्व स्वीकारायचे. निर्णय समाजाला घ्यायचा आहे. निर्णय नवशिक्षित पिढीला घ्यायचा आहे. निर्णय वर्तमानातील उच्चशिक्षित पिढीला घ्यायचा आहे.
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. दी. 24 January 2014.

नेतृत्वाचा स्वीकार करा


((("आता सर्व गटांनी युती करावी अशी कल्पना येत आहे . बर एकवेळ युती मान्य करूया पण मृत गटांना परत सुळसुळाट करण्यासाठी त्यांना ICU मधून काढून परत त्यांच्यात जीव टाकण्याचे प्रकार आहेत."...By Pravin Jadhao)))...प्रवीण हे अगदी बरोबर आहे. युती किंवा ऐक्य म्हणणाऱ्या लोकांची राजकीय प्रगल्भता बाल्यावस्थेत आहे असे म्हणावे लागेल. ऐक्य आता अश्यक्यप्राय आहे त्यामुळे त्यावर मत प्रदर्शित करण्यात वेळ घालविणार नाही. परंतु युती ही नवी संकल्पना काही तरुणांनी मांडली त्यामुळे त्यांचे स्वागतही करू. परंतु जर राजकीय परिस्थितीचे चिंतन केले तर असे दिसून येते कि युती किंवा आघाडी ही स्वतंत्र वोट बँक असणाऱ्या पक्षांमध्ये केली जाते. आज आंबेडकरी म्हणविणाऱ्या पक्षांजवळ स्वतःची अशी स्वतंत्र वोट बँक नाही. अश्या परिस्थितीत कार्यकर्ते आणि नेते यांच्यात कितीही युती वा आघाड्या झाल्या तरी निवडणुकीवर त्याचा परिणाम पाडू शकतील असे दिसत नाही. बसपा निवडणुकीच्या सौदेबाजीत इतकी गुंतली आहे कि त्यांनी युती व आघाडी केली तर त्यांची दुकानदारी बंद व्हायची. व दाना-पाणी बंद व्हायचा अशी परिस्थिती आहे. जोपर्यंत स्वतःची स्वतंत्र अशी मजबूत वोट बँक तयार होत नाही तोपर्यंत आपापसात कितीही युती व आघाडी झाली तरी निर्णय मात्र शून्य राहील. म्हणून एकच पर्याय या समाजासमोर व कार्यकर्त्यांसमोर राहतो तो असा कि, प्रत्येकांनी वर्तमान राजकारणाचा व राजकीय परिस्थितीचा विचार करून समाजासमोर "एकनेतृत्वाची संकल्पना" ठेवावी. समाजाला कुठलेही एक नेतृत्व स्वीकारावयास सांगावे. जो नेता आंबेडकरी विचार व कृतीवर सक्षम बसत असेल त्या नेतृत्वाचा स्वीकार करा. तेव्हाच एक भक्कम वोट बँक या समाजाची तयार होईल. त्यातच या समाजाचा अभ्युदय आहे. राजकीय उभारणी त्यातूनच करता येईल.
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. दी. 25 जानेवारी 2014


सत्ता ही तात्कालिक आणि अल्पकालीन असते. पण सामाजिक परिवर्तन हे दीर्घकाळ टिकणारे. समाजाचे भवितव्य अल्पकाळासाठी कि दीर्घकाळासाठी ? याचा विचार प्रत्येकाने करावा. कारण सामाजिक परीवर्तानासोबत जर सत्तेपर्यंत पोहचायचे असेल तर तत्कालीन सत्तेला व राजकीय स्वार्थाला तिलांजली द्यावीच लागते. आणि सामाजिक राजकारणाच्या प्रक्रियेत हितसंबंधी लोकांसोबतच इतर हितसंबंधी लोकांशी सौहार्दाचे संबंध निर्माण करून सत्तेकडे जायचे असते. राजकीय सामाजीकरणाची ही प्रक्रिया समजून घेतल्या शिवाय तुम्हाला तुमची भक्कम राजकीय ताकत निर्माण करता येणार नाही. कम्पुवादी राजकारण हे प्रत्येकच समाजासाठी घातक आहे याचे भान असू द्या. आणि कम्पुवादी राजकारणातून बाहेर पडून सर्वांना सोबत घेऊन चालणारे राजकारण करा. तशी मानसिकता तयार करा.
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. दी. २१ जानेवारी २०१४


समाज चुकीच्या दिशेने जात नसतो. समाजाचे मानसिकीकरण करणारी यंत्रणा अपयशी ठरते तेव्हा नेतृत्वाने भूमिका घेऊन समाजाला योग्य दिशा दाखविली पाहिजे. आणि समाजाचे मानसिकीकरण करणारी यंत्रणा भक्कम केली पाहिजे....

मतस्वातंत्र्य आणि अभिव्यक्तीस्वातंत्र्य असल्यामुळे जोपर्यंत मानसिक परिवर्तन केले जात नाही तोपर्यंत कुणावरही आळा घालता येणार नाही. त्यासाठी संवैधानिक मानसिकीकरण करणे प्रत्येकाचे कर्तव्य आहे. बाबासाहेबांना संविधानाच्या माध्यमातून एकसंघ भारतच नव्हे तर एकसंघ समाज निर्माण करायचा होता जो संवैधानिक प्रक्रियेतून या लोकशाहीला बळकटी देऊ शकेल. निदान याचे तरी भान प्रत्येकाने ठेवायला हवे. एवढेच...

---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. दी. २१ जानेवारी २०१४

Tuesday, 14 January 2014

जागो भारत के लोगो...जागो !

देश की राजनीती ने नया रुख अपना लिया है ! बदलाव की लहर चारो और गूंजती दिखाई दे रही है ! लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है ! ऐसा अगर कोई कहता है तो बिलकुल सही है ! लोकतंत्र में किसी एक पक्ष के हाथ में सत्ता जादा दिन तक रहे तो वो लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है ! जिसका नजारा भारत ने देख लिया है ! लेकिन क्या आज का बदलाव सही में लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगा ? क्या सही में लोकतंत्र की दिशा में यह बदलाव हो रहे है ? इसकी तय तक पहुचे बिना इस राजनितिक बदलाव को लोकतंत्र के लिए सही नहीं कहा जा सकता !
लोकतंत्र में किसी भी आम चुनाव के पहले देश की विभिन्न पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र और नीतियों को देखा जाता है ! एवम उस घोषणापत्र और नीतियों का जनता तक प्रचार और प्रसार किया जाता है ! लेकिन आज इस बदलाव के दौर में घोषणापत्र और नीतियों की चर्चा नहीं हो रही बल्कि प्रधानमंत्री पद के व्यक्ति की चर्चाए हो रही है ! प्रधानमंत्री पद के व्यक्ति के नामसे जिस व्यवस्था में चुनावी प्रचार और प्रसार होते है वह व्यवस्था लोकतंत्र नहीं बल्कि अध्यक्षतंत्र होता है ! राहुल गाँधी / नरेन्द्र मोदी / केजरीवाल जैसे व्यक्ति के नाम से देश की सत्ता का प्रचार और प्रसार किया जा रहा है यह किस लोकतंत्र की नीतियों में आता है ! इसका सोच विचार करना आज देश के नागरिको की पहली प्राथमिकता है ! पिछले कई सालो से व्यक्तिविशेष के नाम से चुनाव लड़ाए जा रहे है ! और २०१४ तो पूरी तरह से व्यक्तिबाधित बन गई है ! क्या इससे देश का लोकतंत्र बना रहेगा ? या बहोत ही जल्द देश में अध्यक्षतंत्र लागु होगा ? इस विषय पर गंभीरता से सोचना सभी देशवासियों का प्रथम कर्त्तव्य है ! जागो भारत के लोगो...जागो !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर.

Tuesday, 7 January 2014

प्रसारमाध्यमे संचालित लोकशाही

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प्रसारमाध्यमे संचालित लोकशाही
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर.
मोबाईल नं. 8793397275, 9226734091

लोकशाहीचा चौथा स्तंभ म्हणून प्रसारमाध्यमांना महत्व आहे. जनमत तयार करण्यापासून तर जनतेचा आवाज सत्ताधारी शासनापर्यंत पोहचविण्याचे काम प्रसारमाध्यमांच्या माध्यमातून केले जाते. ज्यामुळे लोकशाही बळकट होण्यास मदत होते. प्रसारमाध्यमांचे लोकशाही व्यवस्थेमध्ये त्रिकालाबाधित महत्व कुणीही नाकारू शकत नाही. नागरिकांचे सार्वभौमत्व अबाधित ठेऊन लोकशाही व्यवस्था जिवंत ठेवण्याचे महत्कार्य प्रसारमाध्यमांना करावे लागते. यादृष्टीने विचार केला तर आजची भारतीय राजकीय व्यवस्था, सामाजिक परिस्थिती आणि भारतीय प्रसारमाध्यमांची भूमिका लक्षात घेणे गरजेचे आहे.

भारतीय प्रसारमाध्यमांनी स्वातंत्रपूर्व काळापासून इथल्या राजकीय व सामाजिक व्यवस्थेच्या बांधणीत महत्वाची भूमिका पेलून धरली होती. टिळक, आगरकर पासून ते डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्यापर्यंत प्रत्येकच महापुरुषाने प्रसारमाध्यमांचे महत्व ओळखून जनमतासोबतच व्यवस्था परिवर्तनाचे साधन म्हणून प्रसारमाध्यमांचा वापर केला. The Times of India (1850), The Hindu (1889), The Hitwada (1911), अश्या इंग्रजी वर्तमानपत्रांपासून केसरी, विजय मराठा, जनता, प्रबुद्ध भारत, दैनिक भास्कर इ. वर्तमानपत्रे आणि १९२७ ला सुरु झालेली दूरभाषकेंद्राची सेवा यांनी जनमताचे साधन म्हणून भारतीय समाजव्यवस्थेत महत्वाचे स्थान निर्माण केले होते. स्वातंत्र लढ्यात या प्रसारमाध्यमांचे योगदान फार मोठे होते. स्वातंत्र्यानंतरही स्वतंत्र भारताची मुहूर्तमेढ रोवण्यात आणि संविधानाने निर्माण केलेल्या नव्या राजकीय व्यवस्थेची घडी बसविण्यात वर्तमानपत्रांची भूमिका महत्वाची राहिलेली आहे.

समाजाचे राजकीय सामाजीकरण करण्यापासून ते थेट सत्ताधाऱ्यांची ध्येयधोरणे जनतेपर्यंत पोहचविण्याचे काम या प्रसारमाध्यमांकडून होत असते. इलेक्ट्रोनिक प्रसारमाध्यमांनी १९९० च्या दशकापासून लोकशाहीमध्ये आपले स्थान बळकट केले आहे. आज तर इलेक्ट्रॉनिक प्रसारमाध्यमे हेच मतदारांचे मतपरिवर्तन करण्यापासून ते थेट कुठल्या पक्षाला व कुठल्या माणसाला सत्तेवर बसवायचे याचे नियोजन करायला लागले आहेत.

२०११ पासून देशात उभे झालेले भ्रष्टाचाराचे आंदोलन हे पूर्णतः इलेक्ट्रॉनिक प्रसारमाध्यमांनी संचालित केलेले आंदोलन ठरले. समाजात सत्ताधारी व त्यांच्या माध्यमातून होणाऱ्या भ्रष्टाचाराविषयी तीव्र असंतोष निर्माण करण्यात प्रसारमाध्यमे यशस्वी ठरली. भ्रष्टाचाराचे दिल्लीतून उभ्या झालेल्या आंदोलनाला प्रसारमाध्यमांनी जनआंदोलनात स्वरूप प्राप्त करून दिले. भ्रष्टाचार थांबविण्यासाठी लोकपाल कायदा व्हावा यासाठी दबावतंत्र निर्माण करण्यात प्रसारमाध्यमांना यश आले. भ्रष्टाचाराविषयी जनआंदोलनाच्या नेतृत्वधारी शिलेदारांमध्ये राजकारण आणि आंदोलन यावरून पडलेली फुट प्रसारमाध्यमांनी अतिशय योग्यरितीने संचारित केली. त्यामुळे आंदोलनात उघड फुट पडून देखील हे आंदोलन ध्येयसिद्धीपर्यंत पोहचविण्यात मिडिया यशस्वी ठरला.

प्रिंट मिडिया असो कि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया असो काही अपवाद वगळता सर्वच प्रसारमाध्यमे सदैव कॉंग्रेस पक्षाचा हात धरून चालत आले आहे. त्यामुळे निष्पक्ष पत्रकारिता आणि निष्पक्ष प्रसारमाध्यमे ही लोकशाहीची मुलभूत तत्वे नेहमीच अव्हेरली गेली. मागच्या ६० वर्षात कॉंग्रेस ने जी काही सत्ता या देशावर गाजविली त्याचे श्रेय प्रसारमाध्यमांना पण द्यावेच लागेल. एकंदरीतच सत्ताधाऱ्यांच्या कुशीत बसून मिडीयाचा झालेला प्रवास लोकशाहीला मजबुती प्रदान करू शकला नाही. हे परखड सत्य देखील मान्य करावेच लागेल. त्यामुळेच २०११ पासून सर्वच मिडियाने कॉंग्रेसचा हात सोडून केलेला प्रवास आणि सत्ताधाऱ्यांच्या विरोधात घेतलेली भूमिका संशयास्पद वाटते. अचानक देशासमोर उफाळून आलेली मिडियाची सक्रियता आणि पत्रकारिता अचंभित करणारी आहे. कॉंग्रेस पक्षाला आलेली सत्तेची गुर्मी हेही त्याचे एक कारण असू शकते.

दिल्लीतला राजकीय गोंधळ इलेक्ट्रॉनिक मिडीयाने इतका उचलून धरला की त्यामुळे गल्लीतला गोंधळ प्रकाशझोतात येउच शकला नाही. केजरीवाल नावाचे राजकीय वलय दिल्लीच्या मुख्यमंत्री पदापर्यंत घेऊन जाण्यात मिडिया यशस्वी ठरला. अचानक नरेंद्र मोदी नावाची उपरती मिडीयाला झाली आणि पंतप्रधान पद मिडियाने निवडणुकीच्या आधीच बहाल केल्यागत प्रचार आणि प्रसार सुरु केला होता. तेव्हापर्यंत मिडीयाने उभा केलेला अरविंद केजरीवाल नावाचा माणूस मिडीयाच्या अपेक्षेपेक्षाही मोठी मजल मारुन गेला. त्यामुळे लगेच दिल्लीच्या मुख्यमंत्री पदाचा अभिषेक होत नाही तोच अरविंद केजरीवाल यांना पंतप्रधान पदाच्या स्पर्धेत मिडिया ने उतरविले आहे. इतक्या झपाट्याने होणाऱ्या मिडीयाच्या हालचाली देशातील जनतेला विचारप्रवृत्त नक्कीच करीत आहेत. पण त्यासोबतच मिडीयाने चालविलेल्या या सत्तेच्या सारीपाटातील खेळात कुणाला जिंकवायचे ? आणि कुणाला हरवायचे ? हे सर्व काही संशयाच्या भोवऱ्यात अडकलेले आहे.

आजपर्यंत या देशात अनेक सार्वत्रिक निवडणुका झाल्या. अनेक मुख्यमंत्री व पंतप्रधान झाले. अनेकांच्या सत्ता आल्या आणि गेल्या. पण नरेंद्र मोदी आणि अरविंद केजरीवाल सारखे मीडियातील सातत्य आजपर्यंत पाहायला मिळालेले नाही. पंतप्रधान पद व्यक्तीदर्शक बनवून रंगविले गेलेले राजकीय चित्र आजपर्यंत या देशात कधीच पाहायला मिळाले नाही. अमेरिकेत चालणाऱ्या राष्ट्राध्यक्षाच्या निवडणुकीत होणारी राजकीय चर्चा जशी व्यक्तीदर्शक असते तशी व्यक्तीदर्शक चर्चा पंतप्रधान पदासाठी चाललेली पाहून देशात लोकशाही आहे कि अध्यक्षीय प्रणाली ? हेच कळत नाही. मुळात या दोन्ही प्रणाली भिन्न आहेत. लोकशाहीची प्रक्रिया वेगळी आहे. ती लोकशाहीची पक्षीय राजकीय प्रक्रिया मोडीत काढून व्यक्तीदर्शक व्यक्तिकेंद्रित प्रक्रिया आणण्याचा प्रयत्न अतिशय गांभीर्याने मिडीयाच्या माध्यमातून सुरु आहे. हिदुत्ववादी विचारसरणीशी जुळलेल्या भाजपप्रणीत वर्गाला या देशात अध्यक्षीय प्रणाली आणायची आहे. हे केव्हाचेच स्पष्ट झाले आहे. आणि मिडिया त्या प्रणालीला देशांतर्गत जनतेच्या मनावर बिंबवत आहे. कारण तिथे हिंदुत्वाचे आणि हिंदुत्व प्रणालीशी जुळलेल्या संस्था संघटनेचे हितसंबंध जुळलेले आहे.

आज मिडिया नावाचे क्षेत्र उद्योगपती आणि भांडवलदार वर्गाने बळकावलेले आहे हे देशातल्या नागरिकांपासून लपून राहिलेले नाही. नागरिकांच्या राजकीय प्रबोधनासोबतच राजकीय सत्तेची सूत्रे व चाबी कुणाच्या हातात ठेवायची जेणेकरून या वर्गाचे हितसंबंध सुरक्षित ठेवता येतील. यासाठी हा सर्व खेळ सुरु आहे. निष्पक्ष पत्रकारिता लयाला जाऊन वर्चस्ववादी भांडवलधार्जिणी पत्रकारिता उदयाला आली आहे. जी लोकशाहीसाठी घातक आहे.

लोकशाही व्यवस्थेत सत्ता बदल झाला पाहिजे. सत्तेतील पक्षीय हुकुमशाही मोडीत निघाली पाहिजे. सत्ताबदल हे जिवंत लोकशाहीचे लक्षण आहे. आणि ती बदलण्यासाठी मिडिया भूमिका घेत असेल तर त्याचे स्वागत केलेच पाहिजे. २०१४ मध्ये कॉंग्रेस ची सत्ता येणार नाही. याची पुरेपूर खबरदारी मिडियाने घेतलेली आहे. देशाच्या दृष्टीने आणि लोकशाहीच्या दृष्टीने ते चांगले आहे. पण सोबतच ही सत्ता कुणाच्या हातात सोपवायची याचीही पूर्ण तयारी मिडियाने करून ठेवलेली आहे. भाजप प्रणीत नरेंद्र मोदी आणि मिडीयाने जन्माला घातलेले अरविंद केजरीवाल इतकीच लढाई मिडिया देशासमोर मांडत असेल तर ती या देशाची कुचंबनाच ठरेल. नरेंद्र मोदी किंवा अरविंद केजरीवाल यांच्या सभोवताल पंतप्रधानाची माळ फिरविण्यात मिडिया धन्यता मानीत आहे. कारण हे दोघेही मिडियाप्रणीत वर्गाचे प्रतिनिधित्व करणारे आहे. एकंदरीतच नव्या आर्थिक समाजरचनेकडे हा देश वळविला जात आहे.

भारतावर मागच्या ६४ वर्षात कॉंग्रेसने एकछत्री सत्ता गाजविली आहे. त्यातून या पक्षाने निर्माण केलेला राजकीय-आर्थिक श्रेष्ठीजणांचा वर्ग आता कॉंग्रेस चा हाथ सोडून बाहेर पडू पाहत आहे. हा वर्ग कॉंग्रेस पक्षातील पारिवारिक वंशवादी वर्चस्व मोडीत काढून आपल्या हातात सत्ता स्थिरावू पाहत आहे. “आम आदमी” हे या वर्गाने धारण केलेले गोंडस नाव समाजाला संमोहित करणारे निमित्त मात्र आहे. अंतर्गत हालचाली राजकीय-आर्थिक श्रेष्ठीजणांचे, मिडियाप्रणीत भांडवलदार वर्गाचे परंपरागत वर्चस्व या समाजावर लादण्यासाठी सुरु आहेत. त्यासाठी “आम आदमी” नावाचे संम्मोहन फार कामी येणार आहे. तेव्हाच या देशात आजपर्यंत राज्याच्या निवडणुकांतील मतदारांचे मतपरिवर्तन करण्यापासून ते थेट दिल्लीच्या मुख्यमंत्री पदावर विराजमान करण्यापर्यंत सातत्याने मिडीया पाठपुरावा करीत आहे.

कॉंग्रेस ची या देशावरील सत्तेची हुकुमशाही जावी हा या देशातील जनतेच्या मनातील उद्रेक आहे. पण त्यासोबतच मिडिया करीत असलेले संम्मोहन शास्त्र वगळले तर नरेंद्र मोदी या देशाचे पंतप्रधान व्हावे किंवा भाजप च्या हाती या देशाची सत्ता द्यावी असेही देशातील जनतेला वाटत नाही. अरविंद केजरीवाल “आम आदमी” चे प्रतिनिधित्व करतात ? कि इथल्या परंपरागत वर्णवर्चस्ववादी लोकांचे प्रतिनिधित्व करतात ? हे अरविंद केजरीवाल यांनी Aims मधील OBC च्या आरक्षणाच्या विरोधात केलेल्या आंदोलनातून दिसून आलेले आहे. अश्या परीस्थितीत मिडिया या देशाची सत्ता त्यांच्या हातात सोपवायला उतावळी झालेली आहे.

इथे मिडीयाच्या माध्यमातून चर्चिला जाणारा वर्ग, सत्तेसाठी गृहीत धरलेला वर्ग आणि विचारधारा कायम या देशावर सत्तेत होती. त्यामुळे आलटून पालटून मिडीयाने कुणाच्याही हातात सत्ता सोपविली तरी सत्तेत कायम तोच वर्ग आणि तीच विचारधारा राहणार आहे. त्यामुळे देशांतर्गत परिस्थितीत कुठलाही बदल अथवा परिवर्तन अपेक्षित नाही. कायम उपेक्षित वर्गाचे उत्थान यातून अभिप्रेत नाही. या वास्तववादी गृहितकावर विचार केला तर येणारा काळ हा उपेक्षित, बहुजन (आम आदमी) वर्गासाठी आहे त्यापेक्षाही बिकट अवस्था निर्माण करणाराच आहे.

या सर्व परिस्थितीत परिवर्तनवादी विचारांची बैठक असणारा स्थानिक व प्रादेशिक पातळीवर वर्चस्व असणारा आणि मर्यादित सत्तेची फळे चाखणारा उपेक्षित, बहुजन (आम आदमी) समाजाचा राजकीय वर्ग या देशात आहे. जो कायम या देशाच्या केंद्रीय सत्तेपासून दूर राहिला आहे. (काही अल्पकालिक उदाहरणे वगळता) ज्या वर्गाने कायम कॉंग्रेस च्या धर्मनिरपेक्षवादी मवाळ भूमिकेसोबत राहण्यात धन्यता मानली. स्वतः अनेकदा तिसऱ्या आघाडीच्या पर्यायी शोधात राहिला. पण मिडीयाने त्यांची तिसरी आघाडी उदयास येऊ न देता आघाडीची बिघाडीच करण्यात धन्यता मानली. ज्या वर्गाचे प्रभावक्षेत्र मिडीयाने कधी उचलून धरले नाही. किंवा ते पेलून धरले नाही. या देशातल्या लोकांना परिवर्तन हवे आहे. आणि ते परिवर्तन परिवर्तनवादी विचारांची नाळ असणाऱ्या पक्ष नेत्यांशिवाय या देशात अपेक्षित नाही. अश्या वर्गाच्या हातात २०१४ ची सत्ता यावी अशी भूमिका मिडियाची असायला हवी होती. पण तिथेही मिडिया मागेच पडत आहे. किंवा मिडिया संचालित वर्गाला ते नकोच आहे.

या सर्व राजकीय गदारोडात आणि मिडीयाच्या फसव्या राजकीय प्रचार प्रसारात २०१४ कडे या देशाने परिवर्तनाच्या दिशेने पाहू नये. सत्ताबदल होईल. परिवर्तन होणार नाही. सत्तेच्या व सत्ताधारी पक्षाच्या मुळाशी असणाऱ्या विचारप्रणाली व विचारप्रवाहात बदल होत नाही तोपर्यंत जनतेला अभिप्रेत परिवर्तन शक्य नाही. परिवर्तनवादी पक्ष व नेत्यांच्या हातात सत्तेची सूत्रे दिल्याशिवाय या देशाला लोकशाही टिकविता येणार नाही. मिडिया संचालित लोकशाहीकडे होणारी वाटचाल संसदीय लोकशाही व समान मत मूल्य असणारी जनतेची सार्वभौम लोकशाही प्रणाली टिकवून ठेवण्यासाठी धोकादायक आहे. त्यामुळे मिडीयाने स्वतःच्या भूमिकेचा विचार नक्कीच करावा. आणि जनतेने आपली मते (राजकीय जाणीव) मिडीयाच्या संम्मोहनात न अडकता डोळसपणे निश्चित करावी. अन्यथा देशांतर्गत लोकशाहीचा अनर्थ व विनाश अटळ आहे.
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---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर.

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