Monday, 28 May 2012

मुस्लिम आरक्षण हमारा अधिकार


मुस्लिम आरक्षण हमारा अधिकार

यहाँ की सांप्रदायिक ताकते हमेशा इस देश के अल्पसंख्यक और मागासवर्ग समुदाय के खिलाफ काम करती रहती है ! इस देश का दुर्भाग्य यही है की, दुनिया का सर्वोच्च समतावादी संविधान भारत के पास होने के बावजूद भी यहाँ की हिन्दू साम्प्रदायिकता समाज के अल्पसंख्यक और मागासवर्ग समुदाय के विकास में रोड़ा डालने का प्रयास करते रहते है ! इसी का एक नमूना आँध्रप्रदेश के उच्च न्यायलय के मुस्लिम आरक्षण के सन्दर्भ में दिए गए फैसले के बाद सामने आया है !
जबकी,
सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के तहत अल्पसंख्यक वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विकास को ध्यान में रखकर केंद्रसरकार ने ४.५ % प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी गई थी ! इसी कड़ी में वह आरक्षण मुस्लिम समुदाय के लिए भी दिया गया ! लेकिन इस निर्णय के खिलाफ आँध्रप्रदेश बी सी वेलफेअर असोसिएशन के अध्यक्ष आर. क्रुशनैय्या इन्होने उच्च न्यायलय में एक जनहित याचिका दायर की थी ! इस केस की सुनवाई करते हुए मा. उच्च न्यायलय ने यह निर्णय दिया की, "यह आरक्षण संविधान के विरुद्ध होने के कारण ख़ारिज कर दिया जाता है !"  मा. न्यायाधीश मदन बी. लोकुर और पि.व्ही. संजय कुमार इनके बेंच ने अपना निर्णय देते हुए कहा की, "केंद्र सरकार का अल्पसंख्यक वर्ग को दिया जाने वाला आरक्षण धर्म के आधार पर था ! यह निर्णय लेते वक्त किसी भी संवैधानिक नियमो को ध्यान में नहीं रखा  गया !"
अब....
सवाल यह है की,
आज तक इस देश में अल्पसंख्यक वर्ग के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए कई कमीशन गठित किये गए ! जिन्होंने अपने रिपोर्ट में इस वर्ग के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए आरक्षण दिए जाने की शिफारिश की थी ! और आज अगर अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देने की बात केंद्रसरकार कर रही है ! तो उच्च न्यायलय ने इसे किस बुनियाद पर असंवैधानिक घोषित किया है ? क्या अल्पसंख्यक यह धर्म है ? या फिर संवैधानिक वर्ग ? अगर अल्पसंख्यक वर्ग यह संवैधानिक वर्ग है तो फिर अल्पसंख्यक वर्ग के में आने वाले सभी धर्म इस के हक़दार हो सकते है ! फर्क बस इतना है की, जो अल्पसंख्यक समुदाय सामाजिक, और आर्थिक बराबरी की तुलना में फीछे होता है ! उसे बराबरी की व्यवस्था में लाने के लिए संवैधानिक नियमो को लेकर ही आरक्षण दिया जाता है ! सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी की व्यवस्था को बराबरी पर लाने के लिए ही तो आरक्षण दिया गया है ! और यह संविधान के तहत ही है ! फिर भी उच्च न्यायलय इसे गैर संवैधानिक क्यों घोषित करता है ? क्या न्यायव्यवस्था आज हमारे समाज के विकास के लिए गैरजिम्मेदाराना हो गई है ? अल्पसंख्यकोंके आरक्षण को धर्म के नाम पर ख़ारिज करना न्यायव्यवस्था की धार्मिक और जातीय मानसिकता को उजागर नहीं करता ? न्यायलय के इस गैरजिम्मेदाराना दलील से न्यायव्यवस्था में भी सभी वर्ग के, धर्म के लोगो को समान तौर आरक्षण की जरुरत को महसूस नहीं कराता ?

हमारी मित्र फरहाना  अंसारी जी की यह दलील भी उतनीही सटीक है,
वो कहती है,
"सवाल उठता है अल्पसंख्यक आरक्षण को "मुस्लिम आरक्षण" कैसे बनाया गया ? अगर वो अल्पसंख्यक आरक्षण है तो मुस्लिम आरक्षण क्यों बताया जा रहा है ?"

इसका एकमात्र कारण यह है की, आज न्यायव्यवस्था में जो धर्म के ठेकेदार बैठे हुए है, वो सांप्रदायिक ताकतों के शिकार है ! और फिर उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ! यहाँ के पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए, उनके अधिकारों के लिए यहाँ की सांप्रदायिक ताकते कभी भी अनुकूल नहीं रही है ! इतनाही नहीं तो इन्ही सांप्रदायिक ताकतों के ठेकेदार न्यायव्यवस्था में न्यायाधिशोंके पदों पर विराजमान है ! इसीलिए ऐसे पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायोंके उत्थान के लिए किसी भी सरकार के निर्णयों को न्यायपालिका ख़ारिज कर देती है !
हालाकि आज की वास्तविकता यह दर्शाती है की,
आरक्षण के नाम पर दिया जाने वाला अधिकार फिर वो नौकरी में, शिक्षा में और पदोन्नति में हो ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयोंको न्यायव्यवस्था असंवैधानिक करार देते हुए ख़ारिज कर देती है ! ऐसे कई न्यायव्यवस्था के निर्णय आये दिन देखने को मिल रहे है ! जिस आरक्षण के तत्व को बचाने की और उसे सुचारू रूप से कार्यान्वित करने की सरकार और प्रशासन की पहल पर नियंत्रण रखने का कम न्यायव्यवस्था को करना चाहिए ! वही न्यायव्यवस्था आज आरक्षण को ख़त्म करने पर लगी हुई है ! और गैरबराबरी की इस व्यवस्था को और भी मजबूत बनाने में अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रही है !

कुछ इसके ऊपर भी सोचना चाहिए !

अगर अल्पसंख्यक वर्ग में मुस्लिम वर्ग को दिया जाने वाला आरक्षण धार्मिक है ? तो फिर.....

क्या OBC वर्ग को दिया जाने वाला आरक्षण धार्मिक नहीं है ?
क्या मराठा आरक्षण की दलील धार्मिक नहीं है ?
क्या sc/st और मागास वर्ग को दिया जाने वाला आरक्षण धार्मिक नहीं है ?

अगर यह सभी अंग हिन्दू धर्म के होने के बावजूद अगर आरक्षण के लिए पात्र हो सकते है, तो फिर मुस्लिम समुदाय और बौद्ध समुदाय जैसे अन्य कई पिछड़े अल्पसंख्यक समुदाय आरक्षण के लिए पात्र क्यों नहीं हो सकते ? मुस्लिम समुदाय के आरक्षण में ही धर्म आड़े कैसे आता ? इसपर गहराई से सोचे तो यह देखने को मिलता है की, आज आरक्षण के नाम पर इन सभी पिछड़े समुदायोंको और अल्पसंख्याकोंको रोका गया है ! और असली ५० % प्रतिशत आरक्षण यहाँ का १५ % प्रतिशत कहलाने वाला वर्ग उसमे भी ३ % ब्राम्हण वर्ग ले रहा है ! आज न्यायपालिका के न्यायाधीश कौन है ? देश में सबसे ज्यादा संख्या में आई ए एस अधिकारी कौन है ? उच्च पदों पर विराजमान लोग किस धर्म और जाती का प्रतिनिधित्व कर रहे है ? २००१ की रिपोर्ट तो यह कहती है की, प्रथम और द्वितीय वर्ग श्रेणी की ९६ % प्रतिशत जगह पर यही लोग बैठे हुए है ! जबकि ८५ प्रतिशत समाज का प्रतिनिधित्व सिर्फ ४ % प्रतिशत लोग कर रहे है ! या कौन सा आरक्षण है ? यह कौन सी संवैधानिक निति है ?
आरक्षित वर्ग को आरक्षण के नाम पर रोका जाये ! और बिना आरक्षित समुदायोंके लोगो को सत्ता और प्रशासन के सभी विभागों में बिठाया जाये ! आरक्षण के नाम पर यह यहाँ के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्गो के अधिकारों के साथ खिलवाड़ नहीं है ? न्यायव्यवस्था इस गैरसंवैधानिक नियुक्तियोमे अपनी राय क्यों नहीं देती ? इस गैरबराबरी की नियुक्तियोंको ख़ारिज करने में न्यायपालिका क्यों ध्यान नहीं देती ? लेकिन आरक्षित वर्ग के लोगो की बात आती है तो संविधान को आगे कर हमारे अधिकारोंको रोकने का प्रयास जरुर किया जाता है ?
इसके लिए हमें सोचना पड़ेगा ? समझना पड़ेगा ? और सतर्क होना पड़ेगा ?

पिछले दिनों १६ अप्रैल २०१२ को मुस्लिम आरक्षण के विरोध में "एस सी / एस टी / ओ बी सी आरक्षण बचाओ ! मुस्लिम आरक्षण हटाओ !" का नारा देकर विश्व हिन्दू परिषद् ने पुरे भारत में विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम किया था ! आरक्षण के मुद्दे को सामने रखकर यहाँ एस सी / एस टी / ओ बी सी और मुस्लिम समुदायोंके बिच सांप्रदायिक संघर्ष को जन्म देना ही इनका एकमात्र उद्देश था ! क्योंकि इनके हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के सपने को साकार करने के लिए ऐसी हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक ताकते यहाँ सांप्रदायिक संघर्ष जन्म देना चाहती है ? जिसके शिकार होकर लोग एक दुसरे के विरुद्ध खड़े हो जाते है ! सरकार ऐसी गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं लगाती ! बल्कि संविधान प्रेमी यहाँ के परिवर्तनवादी आंदोलनों को दबाने का हरवक्त प्रयास करते रहती है !

आज जरुरत है की, .............

मुस्लिम समुदाय गरीबी, अशिक्षा, संधिया और विकास से वंचित है ! इस समुदाय के सर्वांग विकास के लिए आज इन्हें आरक्षण देना जरुरी हो गया है ! और उसके लिए मुस्लिम आरक्षण की घोषणा काफी कारगर सिद्ध हो सकती थी ! लेकिन आँध्रप्रदेश उच्च न्यायलय के इस निर्णय ने इस बड़ी पहल पर पानी फेर दिया है !

इसलिए.....

मेरी परिवर्तन वादी आन्दोलन और आंबेडकरवादी आन्दोलन से जुड़े हर संस्था / संगठन और व्यक्ति से यह गुजारिश है की, यहाँ के मुस्लिम समुदाय के संवैधानिक आरक्षण के लिए एक होकर लढना चाहिए ! जैसे ओ बी सी आरक्षण को दिलाने के लिए यहाँ के परिवर्तनवादी आन्दोलन और खास कर आंबेडकरवादी आन्दोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी ! उसी तरह आज मुस्लिम आरक्षण के लिए हमें सामने आकर हमारे मुस्लिम भाइयोंको संवैधानिक आरक्षण देने के लिए काम करना होगा ! यहाँ का कोई भी मुस्लिम किसी भी संवैधानिक अधिकारोंसे वंचित न रहे इसके लिए हमें काम करना होगा ! और उन्हें उन अधिकारोंसे वंचित रखने वाले सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ आवाज उठानी होगी ! तभी इस देश की धर्मनिरपेक्षता की लाज को हम बचा सकेंगे और गैर बराबरी की इस व्यवस्था को बराबरी पर लाने की हमारी कोशिश कामयाब हो सकती है !

--------"जय भीम"---------------------
-------------आपका--------------------
----डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपुर. मो. न. 9226734091






Thursday, 24 May 2012

अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा कांगावा आणि वैचारिक प्रदूषण

अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा कांगावा आणि वैचारिक प्रदूषण
-----डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर.  मो. नं.  9226734091 

भारतीय संविधानाद्वारे प्रत्येक भारतीयांना मुलभूत अधिकाराअंतर्गत कलम १९ द्वारे अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य बहाल करण्यात आले आहे. परंतु तितक्याच प्रमाणात त्यावर बंधने सुद्धा लादण्यात आलेली आहेत. मुक्त अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य म्हणजे बुद्धीचा स्वैराचार. आणि बुद्धीच्या स्वैराचाराला अभिव्यक्ती स्वातंत्र्यात कुठेही स्थान नाही. उलटपक्षी सम्यक/वास्तववादी/ विज्ञानवादी/बुद्धीसापेक्ष/प्रयोगशील विचारदृष्टी व विचारांचे प्रकटीकरण हे अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचे मूळ आहे. परंतु आज भारतात दिसून येतो तो फक्त आणि फक्त बुद्धीचा स्वैराचार. जिथे वास्तव्याला कुठेही स्थान नाही. विज्ञानवादी परीक्षणाला वाव नाही. फक्त दिसतो तो आकस. एखादी व्यक्ती वा विचार यांचा विरोध. परिवर्तनवादी आंदोलने आणि सामातामुलक व्यवस्थेची स्थापना करणा-या महापुरुषांचा अपमान. मग तो व्यक्तीच्या संबंधाने असो की महापुरुषांच्या संबंधाने. धर्माच्या संबंधाने असो की विचारांच्या संबंधाने. वास्तवतेच्या संबंधाने असो की कल्पनाविलासाच्या संबंधाने.
अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य मतप्रदर्शनासाठी आवश्यक मानले तरी ते वास्तवात घडणा-या घडामोडीच्या संबंधाने असणे महत्वाचे आहे. इतकेच नाही तर त्या घटनेचा संबंध हा त्या व्यक्तीच्या जीवनाशी/जगण्याशी प्रत्यक्ष संबंधित असायला पाहिजे. सोबतच त्या विषयाची प्रगल्भता त्या व्यक्तीमध्ये असणे गरजेचे आहे. उटसुट काहीही बरडणे वा रेखाटणे म्हणजे अभिव्यक्ती स्वतंत्र आहे का ? मत प्रकट करणे आणि आपल्या मताला सर्वमान्यता देणे. यात मोठा फरक आहे. तसेच व्यक्तिगत मत आणि सामाजिक मत यातही फरक आहे. पण तो कदाचित इथल्या तथाकथित अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा कांगावा करणा-यांना माहित नसावा. किंवा माहित असेल तरी जाणीवपूर्वक तो टाळला जात असावा. हे वर्तमानातल्या अभिव्यक्ती स्वातंत्र्यावरील चर्वणावरून दिसून येते.
कायदा अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा पुरस्कार करीत असला तरी समानांतर अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याला मान्यता देत नाही. अन्यथा मानसिक आजाराने ग्रस्त असलेल्या किंवा मानसिक संतुलन बिघडलेल्या माणसालाही कायद्याने अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य बहाल केले असते. पण तसे करण्यात आलेले नाही. समाजही अश्या व्यक्तींचे अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य मान्य करीत नाही. उलट अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा वापर करीत असतांना काही मर्यादा आणि बंधने घालून देण्यात आली आहेत. सामाजिक ऐक्याला, धार्मिक भावनेला, महापुरुषांच्या आदर सन्मानाला, राष्ट्रीय एकात्मतेला, संविधाच्या सार्वभौमतेला आणि देशाच्या सुरक्षिततेला ठेच पोहोचणार नाही याची काळजी घेऊनच अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा वापर करावा लागतो. परंतु आज नेमके हेच घडत नाही. विकृत मानसिकतेला अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा मुलामा चढवून स्वस्थ मानसिकतेच्या अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याची गळचेपी केली जात आहे. आणि त्याविरुद्ध आवाज उठविणे म्हणजे यांच्या विकृत मानसिकतेच्या अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचे हनन करणे. असे त्यांना वाटते. हे सोयीस्कररित्या बदललेले समीकरण आधुनिक भारताच्या निर्मितीसाठी अत्यंत धोकादायक असेच आहे.
एका व्यक्तीच्या संबंधाने मत प्रकट करणे व एका घटनेच्या संबंधाने मत प्रकट करणे यात बराच फरक आहे. व्यक्तिगत टीपा-टिपणी व वैचारिक मतभेद अभिव्यक्ती स्वातंत्र्यात मान्य करता येईल. परंतु व्यवस्थेच्या संबंधाने मत प्रकट करतांना ती व्यवस्था ज्या प्रक्रियेतून घडली आणि मान्य करण्यात आली; त्या घटनेच्या संबंधाने अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा स्वैराचारी वापर केला जाऊ शकत नाही. त्यातही अभिव्यक्ती स्वातंत्र्यातून आलेल्या वैयक्तिक मताला जेव्हा सर्वमान्यता देण्यात येते. तेव्हा ते व्यक्तिगत अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य राहत नसून ते सामाजिक प्रकटीकरणाचे रूप धारण करते. एन सी ई आर टी च्या पुस्तकातील डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, भारतिय संविधान, संविधान निर्मिती प्रक्रिया, संविधान सभेतील सदस्य यांचे अपमान करणारे व्यंगचित्र जेव्हा शंकर यांनी १९४९ ला काढले. तेव्हा तो त्यांच्या अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याच्या अधिकार कक्षेत होता की नव्हता हे ठरविणे वादातीत ठरू शकते. कारण मर्यादित बंधनांना त्यांनी त्यांच्या व्यंगचित्रात ओलांडले आहे. आणि संपूर्ण घटना समितीतील सदस्यांचा अपमान केला आहे. एकंदरीत संविधान निर्मितीची संपूर्ण प्रक्रिया व त्या काळातील परिस्थिती याची संकुचित जाण शंकर यांना असल्यामुळे त्यांनी तसे व्यंगचित्र काढले असेलही. परंतु त्या व्यंगचित्राला किती मान्यता मिळाली ? किंवा किती लोकांनी ते व्यंगचित्र स्वीकारले ? याचा कुठलाही आलेख आज उपलब्ध नाही. ही वास्तवता आहे. पण जेव्हा त्याच व्यंगचित्राला इथल्या केंद्र सरकार प्रणीत राष्ट्रीय शिक्षण संशोधन व प्रशिक्षण संस्थेच्या माध्यमातून शिकविण्यात येणा-या ११ व्या वर्गाच्या क्रमित पुस्तकातून मान्यता देण्यात येते. तेव्हा ते व्यंगचित्र अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य राहत नसून एखाद्या विषयाच्या संदर्भाने शासकीय मान्यताप्राप्त सामाजिक प्रकटीकरणाचे एक साधन ठरते.
सरकारची जबाबदारी इथल्या संविधानाच्या संरक्षणाची आहे. संविधान सभेतील प्रत्येक सदस्यांचा मान सन्मान राखून देशाच्या संविधानाचे महत्व अबाधित ठेवणे हे त्या सरकारचे आद्यकर्तव्य ठरते. हीच गोष्ट लक्षात घेऊन एन सी ई आर टी च्या पुस्तकातील व्यंगचित्रावरून आंदोलन केल्या गेले. व्यंगचित्रातून भारतीय संविधान, संविधान सभेतील सदस्य, घटनेचे शिल्पकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचा अपमान होत असल्याची जाणीव सरकार आणि संसदेतील सभासदांना झाल्याने त्यावर चर्चा झाली. आणि सरकारने तशी जबाबदारी स्वीकारून देशाची व देशातील नागरिकांची माफी मागितली. नव्हे आम्ही हे आंदोलन उभे करून जे निवेदन सरकारला सादर केले होते त्यात प्रामुख्याने पहिली मागणी तीच केली होती. त्याची दखल सरकारने घेतली. तसेच आमच्या निवेदनातील सर्व मागण्यांना मान्य करून ते पुस्तक अभ्यासक्रमातून काढून घेण्याचे आदेश दिले. व दोषींवर कारवाई करण्यासाठी समिती गठीत केली. या देशातल्या जनतेने त्याचे स्वागतही केले.
परंतु इथल्या काही प्रतिक्रांतीवादी, समाजवादी आणि अर्ध्या हडकुंडात पिवळ्या झालेल्या काही परिवर्तनवाद्यांनी या आंदोलनाच्या विरोधात मोर्चा उभा करून त्या व्यंगचित्राचे समर्थन केले. काहींनी पुस्तक अभ्यासक्रमातून काढू नये म्हणून (पुस्तक न वाचताच ) आपल्या बुद्धीचा कीस पाडला. काहींनी हा मुद्दा संसदेत यायलाच नको होता म्हणून ते या देशाचे किती संवैधानिक जागरूक नागरिक आहेत ? याची प्रचीती करून दिली. काहींनी त्या व्यंगचित्राचे समर्थन करून त्यात काहीच वाईट नाही. असा जावईशोध लावला. काहींनी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा मुद्दा पुढे करून सरकार व एन सी ई आर टी ची पुस्तके प्रमाणित करणा-यांना (सुहास पळशीकर आणि योगेंद्र यादव) बक्षिसच देऊन टाकले. तर काहींनी याविषयी झालेल्या आंदोलनालाच राजकीय अंग देऊन आपल्या कुस्सित मनोवृत्तीचे दर्शन घडवून आणले. काहींनी आपल्या बचावासाठी आणि या सर्व प्रकरणात ते पूर्णतः जबाबदार असल्यामुळे त्यातून अंग काढून घेण्यासाठी असे प्रदर्शन केले. पण काहींनी तर हे आंदोलन न अभ्यासता, पुस्तक न वाचता आपल्या कमकुवत बुद्धीचे वाटोळे वर्तमानपत्रातून केले.
या सर्व प्रकरणात भारतात संविधान आणि देशावर प्रेम करणारी मंडळी किती आणि कशाप्रकारची आहेत. हे प्रामुख्याने दिसून आले. कुठलेही प्रकरण समजून न घेता, आंदोलन समजून न घेता वर्तमानपत्रातल्या प्रसिद्धीच्या हव्यासापोटी विचारांचा कीस पाडला. व स्वतःला प्रतीतयश विद्वान विचारवंत म्हणून झेंडा मिरविला. मुळात या ११ व्या वर्गाच्या या संपूर्ण पुस्तकात (प्रामुख्याने पहिल्या प्रकरणात ) भारतीय संविधानाला आणि संविधान निर्मात्यांना मागे टाकण्याचाच प्रयत्न करण्यात आला आहे. या पुस्तकात व्यंगचित्र देण्याचे समर्थन करण्यात आले. पण कुठल्याही व्यंगचित्राचा त्या पुस्तकातील विश्लेषणाशी तिळमात्र संबंध नाही. मुला मुलींचे व्यंगचित्र देऊन ११ व्या वर्गातील मुलांना हे काय शिकवू पाहतात ? हे यांचे यांनाच माहित. तसेच व्यंगचित्राच्या खाली केलेले विश्लेषण आणि पुस्कातील त्याच पानावर आलेले विश्लेषण याचाही संबंध कुठेच येत नाही.
त्यातही इतके अपमानजनक चित्र हे बाबासाहेबांच्या बाबतीतच या संपूर्ण पुस्तकात टाकलेले आहे. बाकी जवाहरलाल नेहरुला संविधान निर्मितीची पावती बहाल करणारे चित्रच यांनी टाकलेले आहेत हे दिसून येईल. तरीसुद्धा काही मंडळी या पुस्तकाचे आणि त्यातील व्यंगचित्राचे समर्थन करीत असतील तर नक्कीच यांच्या मनात इथल्या संविधानाबद्दल किती आस्था आहे ? हे दिसून येईल. याच विद्वानांनी एम एफ हुसेन, तस्लिमा नसरीन, सलमान रश्दी यांच्या अभिव्यक्ती स्वातंत्र्यावर गदा आणली. कारण त्यांच्या लिखाणातून आणि चित्रांतून यांचा धर्म, संस्कृती, विचार अपमानित होत होता. पण जेव्हा भारतीय संविधान आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचा अपमान होतो तेव्हा यांना अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य आठवते. ही तर्हेवाईक वागणून आणि सोयीस्कर गळचेपी या विद्वानांच्या पचनी पडते. हेच या देशाचे दुर्भाग्य आहे. या देशातल्या विचारांची आणि मानसिकतेची हीच काळी बाजू या देशाला मागे टाकत आहे.
या पुस्तकातील पान क्र. ५, ६, ७, ९, ११, १४, १५, १६, १८, १९ यावरील चित्रे आणि त्यांचे विश्लेषण हे भारताच्या संविधानाला कमकुवत बनविणारे आहे. इतकेच नाही तर संविधानाबद्दल चुकीची माहिती पसरवून विद्यार्थ्यांना विचलित करतात. भारतीय संविधान शिकवीत असतांना इराकी संविधानाशी त्याचा काही संबंध नसतांनादेखील अलीकडे सद्दाम हुसेन चे राज्य गेल्यानंतर तिथल्या संविधान निर्मितीच्या प्रक्रियेला भारतीय संविधानाशी जोडण्याचा खोडसाड प्रकार करून तश्या संबंधीचे व्यंगचित्र या पुस्तकात टाकण्यात आले आहे. इतकेच नाही तर संविधान सभेचे कामकाज स्पष्टपणे विश्लेषित केले नाही. त्यातही तारखा न देता वर्षांचा उल्लेख करून मुलांमध्ये संभ्रम निर्माण करण्यात आले आहे.
एन सी ई आर टी ही शासनाची शिक्षणाच्या क्षेत्रातील जबाबदार संस्था आहे. शिक्षण व्यवस्थेत ती एक शिक्षण संस्था म्हणून केंद्र शासनाचे प्रतिनिधित्व करते. त्यामुळे एन सी ई आर टी ने जे काही शिकविले किंवा पाठ्यपुस्तकात प्रमाणित केले तर ते इतर शिक्षण संस्थांसाठी मार्गदर्शक ठरते. अश्या परिस्थितीत एन सी ई आर टी चे पुस्तक प्रमाणित करतांना किती सावधानता बाळगली गेली पाहिजे होती ? परंतु तशी सावधानता बाळगली गेलेली दिसून येत नाही. एन सी ई आर टी चे राज्यशास्त्र विषयाच्या मार्गदर्शक मंडळाने केवळ शासकीय पैसा लाटण्यासाठी थातुरमातुर या पुस्तकाची निर्मिती केली असे दिसून येते. पुस्तक निर्मितीचे आणि त्यातील आशयाचे गांभीर्य या मंडळाने घेतलेले नाही. हेच यातून स्पष्ट होते.
यावरून या देशातल्या सरकारला, शिक्षण मंडळांना, विषय सल्लागार मंडळांना आणि इथल्या तथाकथित विद्वान विचारवंतांना भविष्यातील पिढीला काय दिले पाहिजे याची गांभीर्य दिसत नाही. मात्र जेव्हा सजग नागरिकांच्या माध्यमातून त्यांची ही चूक लक्षात आणून दिली. किंवा झालेल्या अपमानाचा सरकारला जाब विचारला. तर ही मंडळी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याला पुढे करतील. तर कधी राजकारण पुढे करून आंदोलनाला गालबोट लावतील. किंवा आंदोलकांच्या प्रमाणित देशभक्तीवरच प्रश्नचिन्ह उभे करतील. पण या न त्या प्रकारे हे इथल्या भारतीय नागरिकांना वास्तववादी भूमिकेपासून वंचित ठेवण्याचा प्रयत्न करतील. हेच आजचे वास्तव झाल्यासारखे आहे. या आंदोलनात मुख्यतः डॉ. बाबासाहेबांना केंद्रबिंदू करूनच आपापली मते प्रकट करण्यात आली. परंतु संविधान, संविधान सभा, संविधानसभेतील इतर सदस्य यांचाही त्या व्यंगचित्रातून अपमान झाला आहे. ही बाजू जाणीवपूर्वक दडवून ठेवण्यात आली.
हे आंदोलन आम्ही सुरु केले तेव्हा फक्त डॉ. बाबासाहेबांचा अपमान हाच एकमेव मुद्दा नव्हता. तर संपूर्ण निर्मिती प्रक्रिया, संविधान व संविधान सभेतील प्रत्येक सदस्यांच्या अपमानाचा मुद्दा उपस्थित करण्यात आला होता. घटनेचे शिल्पकार म्हणून डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचा अपमान आहेच. पण त्यासोबतच तो संविधान सभेतील सर्व सदस्यांचा अपमान आहे. हा या व्यंगचित्र विरोधात केलेल्या आंदोलनाचा आधार होता. पण आंदोलकांच्या या बाजूला दुर्लक्षित करून डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर आणि त्यांच्या अनुयायांना बदनाम करण्यासाठीच हे सर्व वैचारिक प्रदूषण या आंदोलनाच्या निमित्ताने होतांना दिसून येत आहे. एकंदर आंबेडकरी चळवळीच्या विरोधात आज वैचारिक वादळ आतून उभे करण्याचा छुपा प्रयत्न यामाध्यमातून केला जात आहे. त्यामुळे निदान सर्व विचारवंतांनी आणि आंबेडकरवाद्यांनी या आंदोलनाची संपूर्ण शहानिशा करून आणि पुस्तक वाचून आपले मत प्रकट करावे. आणि सरकारच्या माध्यमातून चालना-या शिक्षण संस्थांमधून असा प्रकार घडत असेल तर इथली सरकार या देशातल्या इतर संस्था-संघटनांवर कितपत नियंत्रण ठेवेल. याचा गांभीर्याने विचार प्रत्येक भारतीय नागरिकाने करावा.
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-----डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. 
मो. नं.   9226734091

Wednesday, 23 May 2012

मिडिया हमारे समाज का दुश्मन

मिडिया हमारे समाज का दुश्मन


इस देश के (ना)लायक मिडिया ने फिर एक बार दिखाया है की, वो यहाँ के परिवर्तनवादी आन्दोलन का कितना बड़ा दुश्मन है ! जबकभी डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर जी के विडंबन या अपमान का मुद्दा उठाया जाता है, उस समय यह मिडिया प्यानिक होकर बाबासाहब और बुद्ध के शांति के मार्ग को ढाल बनाकर क्रांतिकारी आंबेडकरी आन्दोलन को कटघरे में खड़े कर लेते है ! शांति, सदाचार और कानून का हवाला देकर कानून के रक्षक ही (आंबेडकरी समाज) कानून थोडते है, ऐसा आरोप लगते है ! पर बार बार बाबासाहब को बदनाम और अपमानित करने वाली समाजव्यवस्था और मानसिकता के खिलाफ एक लब्ज भी नहीं निकालती ! मैंने अपने कुछ साथियों को साथ में लेकर जब पहली बार एनसीईआरटी के किताब के कार्टून पर आन्दोलन किया था तब पुरे मिडिया का आमंत्रित किया था ! सब मिडिया के लोग वह आकर सिर्फ हमारा तमाशा देख कर गए ! इतना अपमानित मुद्दा वो भी केंद्र सरकार से जुड़ा होने के बावजूद भी किसी भी मिडिया ने उस खबर को नहीं प्रसारित किया ! (लोकमत को छोड़कर) बाद में यह मुद्दा संसद के सामने आया उस दिन भी नागपुर के सभी मिडिया को यह मालूम था की यह मुद्दा मैंने उठाया था ! फिर भी किसी ने मुझसे संपर्क कर इस आन्दोलन के असलियत के बारे में जानने की कोशिश नहीं की !(कुछ स्थानीय मिडिया छोड़कर) क्योंकि उन्हें पता था की अगर मै मिडिया के जरिए इस आन्दोलन की सच्चाई लोगो के सामने रखता तो आज मिडिया इस आन्दोलन के बारे में जो नकारात्मक लिख रहा है वो काश नहीं होता ! इसलिए जिन लोगो को इस विषय के बारे में कुछ भी मालूम नहीं ऐसे तथाकथित लोगो को लेकर चर्चा की गई ! जिसके कारण लोगो तक सच्चाई नहीं जा सकी ! आज जो संभ्रम बनाया जा रहा है वो यहाँ की मनुवादी मानसिकता का असली परिचय है !(कुछ अपने भी शामिल है) ऐसे वक्त हमें सोचना होगा !
क्या सही मायने में आज भारत में बसा मिडिया लोकतंत्र का हिस्सा हो सकता है ? क्या मिडिया समाज का आइना बन पाया है ? क्या यह मिडिया यहाँ की सामाजिक व्यवस्था का असली मनुवादी चेहरा नहीं है ? क्या यह मिडिया हमारे समाज का दुश्मन नहीं है ?
भारत के बर्बादी का असली कारण और भारत के विकास के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट भ्रष्टाचार न होकर यहाँ का मिडिया है !!!!!!!!!!
क्या ऐसे मिडिया को जड़ से उखाड़ने के लिए हमें अण्णा से बड़ा जनतांत्रिक आन्दोलन यहाँ के दबे कुचले और पीड़ित बहुसंख्य लोगो को साथ में लेकर खड़ा नहीं करना चाहिए ?????????
-------डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.

Thursday, 3 May 2012

आंबेडकरी मानसिकतेचे अपहरण


आंबेडकरी मानसिकतेचे अपहरण
डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपूर. ८७९३३९७२७५

क्रांती आणि प्रतीक्रांतीच्या महायुद्धात अनेक सामाजिक घटकांमध्ये बदल घडून येत असते. विचार, संस्कृती, मानसिकता यांचे ध्रुवीकरण होतांना समाज आमुलाग्र परिवर्तनाचा साक्षीदार ठरत असतो. कधी माणूस बदलतो तर कधी मानसिकता बदलते. क्रांतीच्या काळात माणूस बदलतो तर प्रतीक्रांतीच्या काळात षडयंत्रकारी नीतीच्या माध्यमातून समाजाच्या मानसिकतेत बदल घडवून आणल्या जातो. क्रांती उघड स्वरुपात समाजात बदल घडवून आणते. तर प्रतिक्रांती छुप्या पद्धतीने प्रस्थापित मूल्यांना पारंपारिकतेकडे घेऊन जात असते. हे घडत असतांना माणूस स्व-वलयाभोवती गुरफटलेला असतो. तर समाज मात्र या सर्व प्रक्रियेपासून अनभिज्ञ राहतो. आज २०१२ ला अशीच काहीशी परिस्थिती भारतीय समाजामध्ये दिसून येत आहे. प्रतीक्रांतीची प्रक्रिया सुरु झाली आहे. मात्र माणसे स्वतःच्या विश्वात सामाजिक अस्थिरतेबद्दल रुक्ष झालेली आहेत. प्रतिक्रांती आपली विषारी पावले समाजाच्या आधुनिक प्रगतीवर वार करीत आहेत. समाज मात्र प्रतीक्रांतीच्या काळाची ही अमानवीय प्रक्रिया ओळखण्यात अपयशी ठरत आहे.
आंबेडकरी क्रांतीने भारतातील मानवीय क्रांतीला पुनर्प्रस्थापित केले होते. बुद्धाच्या मानवीय तत्वज्ञानाला हजारो वर्षाच्या प्रतीक्रांतीच्या गर्तेतून बाहेर काढून सम्यक समतावादी समाजाच्या स्थापनेसाठी संचारित केले. संविधान आणि कायद्याच्या रुपात बुद्ध तत्वज्ञान मानवी जीवनाचा अविभाज्य अंग बनला. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या या जागतिक मानवतावादी सम्यक क्रांतीने हजारो वर्षांचे हरविलेले मानवी स्वातंत्र्य बहाल केले. इतकेच नाही तर येणा-या काळाची पावले ओळखून संविधानाच्या रुपात भविष्यकालीन मानवी विकासाचा आणि अबाधित स्वातंत्र्याच्या पाया रचला. त्यामुळेच बुद्ध तत्वज्ञानाला प्रेरित आंबेडकरी क्रांती ही जगातील एकमेव समतावादी सम्यक क्रांती ठरली. ज्या क्रांतीने कुठल्याही ध्रुवीकरणाला थारा न देता सकल मानवी विकासाची मुहूर्तमेढ रोवली. इतिहासाच्या सर्व परंपरागत प्राक्तनांना पायदळी तुडवून मानवी कल्याणाची संहिता आंबेडकरी क्रांतीने दिली. हजारो वर्ष गुलामीत जगणा-या समाजाच्या मस्तीष्कावर चढलेली मरगळ झटकून या क्रांतीने आंबेडकरी मानसिकतेचे बीजारोपण शोषित-पिडीत-वंचीतांमध्ये केले होते.
समतावादी विचार, कल्याणकारी नीती, मानवीय संस्कृती, कायद्याचे राज्य, सर्वसमावेशक न्यायाची प्रस्थापना, सम्यक संबोधि वातावरण, सकारात्मक परिवर्तन, अन्यायाचा प्रतिकार, सम्यक कृती व आचरण, सामाजिक भान आणि स्वत्वाच्या स्वीकारातून स्वार्थाचा त्याग इ. सर्व आंबेडकरी मानसिकतेचे प्रारंभिक मर्म होय. अधिकारविहीन समाजाला अधिकाराची ग्यारंटी, स्वातंत्र्यविहीन समाजाला स्वातंत्र्याची हमी, असमान व्यवस्थेत समानतेचा संकल्प, अन्यायाच्या इतिहासाला कल्याणाचा मंत्र हे आंबेडकरी मानसिकतेचे आधारस्तंभ आहेत. कल्याणकारी व्यवस्था आणि राज्य समाजवादाची शासनव्यवस्था ही आंबेडकरी मानसिकतेची ध्येय उराशी बाळगून जगणारा समाज निर्माण करणे हेच अंतिम साध्य आहे. आंबेडकरी विचार्क्रांतीचा लढा आजही त्यासाठीच सुरु आहे. आणि मानवी जीवनाच्या अस्तित्वापर्यंत तो सुरु राहणार आहे. परंतु काळाच्या ओघात प्रतीक्रांतीने समाजातील आंबेडकरी मानसिकतेचे अपहरण करून त्याऐवजी स्वार्थी, अन्यायकारी आणि पराकोटीच्या दाम्भिकतेने भरलेली स्वहिताची मानसिकता रूढ केली आहे.
आज आंबेडकरी मानसिकता प्रतीक्रांतीच्या विषारी बिजारोपणाने प्रदूषित केली आहे. अन्यायाविरुद्ध लढणारी आंबेडकरी क्रांती शिथिल झाली आहे. "जागते रहो" चा निनाद करीत सामाजिक विकृतीवर डोळ्यात तेल घालून अहोरात्र पहारा देणारी आंबेडकरी मानसिकता घरात बसून "हाताची घडी, तोंडावर बोट" ठेवल्यागत दडून बसली आहे की काय ? अशी शंका यायला लागली आहे. शंकाच नव्हे तर तशी वास्तवताही दिसू लागली आहे. परिवर्तनाची शिलेदार आणि मानवी कल्याणाची पहारेदार असणारी आंबेडकरी मानसिकता इतक्या लवकर परिस्थितीच्या गर्तेत अडकणे शक्य नव्हते. मुद्दाम ती अडकविल्या गेली आहे का ? की आंदोलनाची धार आता बोथड झाली आहे ? याचा शोध आता आम्हाला घ्यावा लागणार आहे.
प्रतिक्रांती छुप्या पावलांनी नेहमीच आपले मार्गक्रमण करीत राहते. कारण प्रतीक्रांतीला प्रस्थापितांच्या हातात व्यवस्थेची सूत्रे सोपवायची असतात. गळून पडलेली प्रस्थापिथांची प्रत त्यांना पुन्हा मिळवून द्यायची असते. परंतु क्रांती ही कालातीत आणि तात्कालिक असते. सदासर्वकाल क्रांती टिकून राहत नाही. कारण क्रांतीचे शिलेदार क्रांतीतून मिळालेल्या हक्क आणि अधिकाराच्या भावविश्वात इतके गुंतून पडतात कि त्यांना त्या क्रांतीने दिलेली व्यवस्था टिकवून ठेवता येत नाही. क्रांती टिकून राहत नाही असे याठिकाणी मला म्हणता येणार नाही. परंतु क्रांतीचे टिकून राहणे आणि क्रांतीचे भविष्य हे त्या क्रांतीच्या शिलेदारांच्या वर्तमानकालीन सामाजिक वर्तणुकीवर अवलंबून असते. समाज एकदा का स्थितप्रज्ञ झाला तर क्रांती चा आवाज दाबला जातो. माणसाला मिळालेल्या नव समाजरचनेतून त्याच्यावरील अन्यायाची तीव्रता आणि तीक्षणता कमी होते. हे सर्व क्रांतीमुळे मिळाले आहे हेही तो विसरून जातो त्यामुळे क्रांतीला टिकवून ठेवण्यात सपशेल अपयशी ठरून प्रतीक्रांतीच्या आक्रमणांना मोकळी वाट करून देतो. इतिहासातील क्रांतीच्या अवलोकानातूनही हेच सिद्ध झाले आहे. ज्या माणसांनी आणि समाजानी क्रांतीची चिंगारी सतत ठेवत ठेवली त्याठिकाणी परिवर्तनवादी व्यवस्था टिकून राहिली.
आधुनिक भारतात डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या क्रांतीने परिवर्तनवादी व्यवस्था निर्माण केली. हजारो वर्षे ज्यांनी गुलामीचे राज्य केले; अश्या प्रतीक्रांतीवाद्यांना बुद्धाच्या समतेच्या धाग्यात बांधून एका क्षणार्धात संपूर्ण पौराणिक पांडित्य आणि त्याचा इतिहास कोलमडून पाडला. समाजात एक चेतना निर्माण केली. जगण्याचे खरे रूप समाजाला अवगत करून दिले. मृतप्राय झालेल्या माणसांना जगण्याचा नवा श्वास दिला. काळ्या इतिहासाची पाने पुसून काढून क्रांतीचा सम्यक संबुद्ध इतिहास रचला. समाजामध्ये विचाररुपी जोम भरला. कल्याणाचा मंत्र आणि उद्धाराचा नवा मार्ग समाजाला दिला. यातून पिडीत-शोषित-वंचित समाजात एका क्रांतिकारी मानसिकतेचे बीजारोपण झाले. जी आंबेडकरी मानसिकता म्हणून ओळखली गेली.
आज ही क्रांतिकारी मानसिकता लोप पावत चालली आहे. क्रांतीचे रणशिंग फुंकणारा आंबेडकरी मानसिकतेचा माणूस चार भिंतीच्या आत व्यवस्थेच्या बंधनात अडकून पडला आहे. मी ज्या व्यवस्थेत जगतो ती व्यवस्था बाबासाहेबांमुळे निर्माण झाली हे माहित असतांनासुद्धा ती माझ्या माणसाच्या हातात नाही. आणि ती माझ्या माणसाच्या हातात नाही. म्हणून मला त्या व्यवस्थेत काम करीत असतांना स्वाभिमान विकून काम करावे लागणार आहे. अश्या नकारात्मक मानसिकतेतून तो जात असतांना त्याच्याकडून प्रस्थापितांविरुद्ध बंद करून उठण्याची शक्यता ही धूसर होत चालली आहे. त्याच्यावर कल्याणाच्या व्यवस्थेचे अस्तित्व असतांनासुद्धा अन्याय करणारी माणसे त्या व्यवस्थेला आपल्या हातात बळकावून बसल्यामुळे तो त्यांच्याविर्रुद्ध पेटून उठणार नाही. कारण पोटाची भूक शमविण्यासाठी क्रांती करावी लागत असली; तरी मिळत असलेल्या भाकरीला लाथ मरून उपाशी पोटी क्रांतीच्या पावलावर मार्गक्रमण करण्याची त्याची तयारी नाही. आणि हे सर्व अतिशय शिस्तबद्धपणे त्याच्या मस्तकावर बिंबविण्यात आले आहे. त्याच्या शरीरातील क्रांतीची उर्मी ही त्याच्या जगण्यासाठी लागणा-या साधनांच्या पूर्तीसाठी तडजोडी करण्यातच खर्ची घातली जात आहे. आणि इथेच आंबेडकरी क्रांती कात टाकीत आहे. विश्व जिंकण्याचे मनोधैर्य असणारी आंबेडकरी मानसिकतेचे अपहरण होणे इथूनच सुरु झाले आहे.
आंबेडकरी चळवळ आणि आंबेडकरी क्रांती ज्या डळमळीत खांद्यावर इथपर्यंत येऊन पोहचली आहे. त्या खांद्यावरील समाजाचा डळमळीत विश्वास सुद्धा आंबेडकरी मानसिकतेचे अपहरण करण्याला कारणीभूत ठरला आहे. या खांद्यांनी स्वतःच्या स्वार्थासाठी केलेल्या वायफळ तडजोडी समाजाच्या विजयी मानसिकतेचे पराजयी मानसिकतेत परिवर्तन करण्याला कारणीभूत ठरल्या आहेत. कुणाचाही कुणावर विश्वास राहिलेला नाही. कुणीही कुणाच्या नेतृत्वात काम करू पाहत नाही. त्यामुळे ज्या भक्कम नेतृत्वाच्या खांद्यावर आंबेडकरी क्रांतीने पुढील मार्गक्रमण करणे गरजेचे आहे. ते मार्गक्रमण अद्यापही सुरु होऊ शकलेले नाही. जेव्हा कधी अशी भक्कम खांदे समोर येतात त्यांच्यावर अविश्वासाची आणि "कळपात लंगडी गाय शहाणी" अशी पेरणी करून त्यांचे खांदेच सोलून टाकण्याची प्रवृत्ती आज प्रस्थापित आंबेडकरी मानसिकतेची बनली आहे. काळ बदलला की सर्व काही बदलते हे निसर्गचक्र आहे. पण विचारांच्या भक्कम पायावर उभी असणारी इमारत सदासर्वकाळ डौलाने उभी असते. कितीही आक्रमणे व प्रतीआक्रमणे झाली तरी त्या इमारतीच्या सौंदर्यात तसूभरही फरक पडत नाही. आंबेडकरी विचार हा त्या इमारतीचा भक्कम पाया आहे. पण खंत एकाच आहे की या विचाराच्या मजबूत पायावर आम्ही आतापर्यंत इमारतच उभी करू शकलो नाही.
आपली जबाबदारी झिडकारून आंदोलनाची धार कमी झाली आहे असा सपशेल आरोप करणे कधीही मनाला न पटणारे असावे. आता आंदोलने होत नाही. माणसे घरातून बाहेर निघत नाही. माणसांना घरातून बाहेर काढणे सोपे नाही. आंबेडकरी चळवळीशी लोकांनी फारकत घेतलेली आहे आणि प्रस्थापितांच्या व्यवस्थेत शामिल होऊ पाहत आहेत. कार्यकर्ते नाहीत. विचारांची वानवा आहे. नेत्यांची मात्र काहीच कमी नाही. सर्वत्र नेत्यांचाच सूळसुळाट आहे. अश्या प्रकारची वाक्ये वारंवार ऐकायला येणे हेच आंबेडकरी मानसिकतेच्या अपहरणाचे द्योतक आहे. जिंकणारा समाज इतका हरलेल्या मानसिकतेने का जगतो आहे ? आंबेडकरी विचारांचा माणूस इतका निराशावादी आणि इतका पराभूत राहूच शकत नाही. मी आंदोलन करेन, समाजाचे एकत्र मजबूत संघटन उभारेन, माझी जबाबदारी मी पार पाडत असतांना इतरांची जबाबदारी पण मी माझ्या समर्थ खांद्यावर पेलून धरेन. समाजाच्या कल्याणाची आणि आंबेडकरी क्रांतीची मशाल मी माझ्या प्रयत्नातून सतत तेवत ठेवेन. अशी म्हणणारी मानसिकता ख-या अर्थाने आंबेडकरी चळवळीचे भविष्य निर्धारित करू शकते.
अजूनही आंबेडकरी समूहामध्ये काही माणसे शिल्लक आहेत. ज्यांच्या मानसिकतेचे  अपहरण केले जाऊ शकत नाही. जी आजही या समाजाला कल्याणाच्या अंतिम टोकापर्यंत पोहचण्यासाठी सतत लढत राहतील. समाजाने चोखंदळ दृष्टीने अश्या माणसांकडे बघण्याची गरज आहे. आणि अश्या माणसांचा स्वीकार करून त्यांच्या समर्थ खांद्यावर समाजाच्या भविष्याची निर्मिती करावी. आधुनिक पिढी नव्या संदर्भानिशी नव्या आव्हानांना घेऊन नव्या साधनांचा वापर करून आंबेडकरी क्रांतीची मशाल बुलंद करण्याची ताकत ठेवते. समाजाने आणि खास करून कोमेजलेल्या खांद्यांनी या आधुनिक युवापिढीकडे विश्वासाच्या नजरेने बघण्याची गरज आहे. कधीकाळी सावरून घेऊन, बेगनी लावून या पिढीला लढण्याची ताकत देण्याचे काम करावे. परंतु त्यांचे नामोहरण करू नये. उत्साहविच्छेद करू नये. मानसिक खच्चीकरण करू नये. या अपेक्षांसह अपहरण झालेल्या आंबेडकरी मानसिकतेला परत मिळविण्याची कसब या पिढीमध्ये पेरता येईल. आणि आंबेडकरी क्रांतीला आलेली ग्लानी घालवून नव्या युगाची, नव्या समाजाची, आधुनिक विकासाची पहाट उगविता येईल.
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