Saturday, 9 August 2014

निजीकरण के परिप्रेक्ष में आरक्षण पर चर्चा

फ़िलहाल भारत देश और समाज बड़ी ही पेचीदा दौर से गुजर रहा है ! एकतरफ सरकार वैश्विकरण को अपनाकर निजीकरण की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रही है ! निजीकरण से देश को खौकला बनाने की कोशिश पूंजी के बढ़ोतरी के आड़े चल रही है ! तो दूसरी तरफ समाज का कई सालो से दबा हुआ निचला तबका आरक्षण जैसे मौलिक अधिकार के तरफ बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है ! आये दिन समाज का कोई न कोई तबका आरक्षण की मांग को लेकर रस्ते पर उतर रहा है या फिर राजनीती के लिए उन्हें रस्ते पर उतारा जा रहा है ! भविष्य की दिशाए और नीतिया न तो पूंजीपति भारत सरकार के पास है और न तो आरक्षण की मांग करने वाले समाज के अविकसित वर्ग के पास ! इसी पेचीदा हालात से आज देश गुजर रहा है !
मौलिक सवाल यह है की सरकार अगर एकतरफ निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और दूसरी तरफ आरक्षण की भी पैरवी कर रही है तो यह स्पष्ट है की देश की सरकार देश और समाज को दोखा दे रही है ! आरक्षण और निजीकरण एक साथ साथ आगे नहीं बढ़ सकते ! आरक्षण तभी कारगर होगा जब सरकार, संपत्ति, उद्योग और सेवा क्षेत्र लोकतांत्रिक सरकार के हाथो में हो ! बिमा, रेल्वे, बैंकिंग, शिक्षा, सुरक्षा, जैसे क्षेत्र जो बड़ी तेजी से पूंजीपतियों के हाथो में देने की मानो होड़ सी लगी है ! ऐसे समय में आरक्षण चाहे किसीको भी और कितना भी दे दो ! कोई लाभ नहीं होने वाला !
भारतीय समाज का दबा हुआ निचला तबका जो खुद को आरक्षण में सुरक्षित करना चाहता है वो पहले देश में सरकार के माध्यम से चल रहे निजीकरण के खिलाफ पहल करे ! निजीकरण को रोके तो ही आरक्षण बच सकता है ! वरना यह जातिवादी पूंजीवादी लोगो की कटपुतली सरकारे और उनके शिकंजे में फंसे राजनेता आप को आरक्षण देकर निजीकरण के जरिए खुद ब खुद ख़त्म कर देंगे ! ""न रहेगा बांस और न बजेगी बासुरी !""
इसलिए सभी आरक्षणवादी लोगो से नम्र निवेदन है की आरक्षण मांगने की बजाये आरक्षण को ख़त्म करने वाले निजीकरण को ख़त्म करने की मांग करो ! उसी में आरक्षण की सही अहमीयत छुपी हुई है !
---डॉ. संदीप नंदेश्वर, नागपुर.